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अर्जुन को कर्म संन्यास का ज्ञान

अर्जुन को कर्म संन्यास का ज्ञान

(हिफी डेस्क-हिन्दुस्तान फीचर सेवा)
रामायण अगर हमारे जीवन में मर्यादा का पाठ पढ़ाती है तो श्रीमद् भागवत गीता जीवन जीने की कला सिखाती है। द्वापर युग के महायुद्ध में जब महाधनुर्धर अर्जुन मोहग्रस्त हो गये, तब उनके सारथी बने योगेश्वर श्रीकृष्ण ने युद्ध मैदान के बीचोबीच रथ खड़ाकर उपदेश देकर अपने मित्र अर्जुन का मोह दूर किया और कर्तव्य का पथ दिखाया। इस प्रकार भगवान कृष्ण ने छोटे-छोटे राज्यों में बंटे भारत को एक सशक्त और अविभाज्य राष्ट्र बनाया था। गीता में गूढ़ शब्दों का प्रयोग किया गया है जिनकी विशद व्याख्या की जा सकती है। श्री जयदयाल गोयन्दका ने यह जनोपयोगी कार्य किया। उन्होंने श्रीमद भागवत गीता के कुछ गूढ़ शब्दों को जन सामान्य की भाषा में समझाने का प्रयास किया है ताकि गीता को जन सामान्य भी अपने जीवन में व्यावहारिक रूप से उतार सके। -प्रधान सम्पादक

संन्यासं कर्मणां कृष्ण पुनर्योगं च शंससि।

यच्छेय एतयोरेकं तन्मे ब्रूहि सुनिश्चितम।। 1।।

प्रश्न-यहाँ ‘कृष्ण’ सम्बोधन का क्या अभिप्राय है?

उत्तर-‘कृष्’ धातु का अर्थ है आकर्षण करना, खींचना और ‘ण’ आनन्द का वाचक है। भगवान् नित्यानन्द स्वरूप हैं, इसलिये वे सबको अपनी ओर आकर्षित करते हैं। इसी से उनका नाम ‘कृष्ण’ है। यहाँ भगवान् को ‘कृष्ण नाम से सम्बोधित करके अर्जुन यह भाव दिखलाते हैं कि आप सर्व शक्तिमान् सर्वज्ञ परमेश्वर हैं, अतः मेरे इस प्रश्न का उत्तर देने में आप ही पूर्ण समर्थ हैं।

प्रश्न-क्या यहाँ ‘कर्म-संन्यास’ का अर्थ कर्मों का स्वरूपतः त्याग है?

उत्तर-चैथे अध्याय में भगवान् ने कही भी कर्मों के स्वरूपतः त्याग की प्रशंसा नहीं की और न अर्जुन को ऐसा करने के लिये कहीं आज्ञा ही दी; बल्कि इसके विपरीत स्थान-स्थान पर निष्काम भाव से कर्म करने के लिये कहा है अतएव यहाँ कर्म संन्यास का अर्थ कर्मों का स्वरूपतः त्याग नहीं है। कर्म-संन्यास का अर्थ है-‘सम्पूर्ण कर्मों में कर्तापन के अभिमान से रहित होकर ऐसा समझना कि गुण ही गुणों में बरत रहे हैं तथा निरन्तर परमात्मा के स्वरूप में एकी भाव से स्थित रहना और सर्वदा सर्वत्र ब्रह्मदृष्टि रखना यहाँ यही ज्ञान योग है-यही कर्म-संन्यास है। चैथे अध्याय में इसी प्रकार के ज्ञान योग की प्रशंसा की गयी है और उसी के आधार पर अर्जुन का यह प्रश्न है।

भगवान् ने यहाँ अर्जुन के प्रश्न का उत्तर देते हुए ‘संन्यास’ और ‘कर्मयोग’ दोनों को ही कल्याण कारक बतलाया है और चैथे तथा पाँचवें श्लोकों में इसी ‘संन्यास’ को ‘सांख्य’ एवं पुनः छठे श्लोक में इसी को ‘संन्यास’ कहकर यह स्पष्ट कर दिया है कि यहाँ ‘कर्म-संन्यास’ का अर्थ सांख्य योग या ज्ञान योग है, कर्मों का स्वरूपतः त्याग मात्र से ही कल्याण भी नहीं होता और कर्मों का स्वरूपतः सर्वथा त्याग होना सम्भव भी नहीं है। इसलिये यहाँ कर्म संन्यास का अर्थ ज्ञान योग ही मानना चाहिये, कर्मों का स्वरूपतः त्याग नहीं।

प्रश्न-अर्जुन ने तीसरे अध्याय के आरम्भ में यह पूछा नहीं था कि ‘ज्ञान योग’ और ‘कर्मयोग’-इन दोनों में से मुझको एक साधन बतलाइये, जिसमें मैं कल्याण को प्राप्त कर सकूँ। फिर यहाँ उन्होंने दुबारा वही प्रश्न किस अभिप्राय से किया?

उत्तर-वहाँ अर्जुन ने ‘ज्ञान योग’ और ‘कर्मयोग’ के विषय में नहीं पूछा था, वहाँ तो अर्जुन के प्रश्न का यह भाव था कि ‘यदि आपके मत में कर्म की अपेक्षा ज्ञान श्रेष्ठ है तो फिर मुझे घोर कर्म में क्यों लगा रहे हैं? आपके वचनों को मैं स्पष्ट समझ नहीं रहा हूँ, वे मुझे मिश्रित-से प्रतीत होते हैं अतएव मुझको एक बात बतलाइये।’ परन्तु यहाँ तो अर्जुन ज्ञान को श्रेष्ठ समझ रहे हैं और न भगवान् के वचनों को वे मिश्रित-से ही मान रहे हैं। वरं वे स्वयं इस बात को स्वीकार करते हुए ही पूछ रहे हैं-‘आप ‘ज्ञानयोग’ और ‘कर्मयोग’ दोनों की प्रशंसा कर रहे हैं और दोनों को पृथक-पृथक बतला रहे हैं परन्तु अब यह बतलाइये कि इन दोनों में से मेरे लिये कौन-सा साधन श्रेयस्कर है?’ इससे सिद्ध है कि अर्जुन ने यहाँ तीसरे अध्याय वाला प्रश्न दुबारा नहीं किया है।

प्रश्न-भगवान् ने जब तीसरे अध्याय के उन्नीसवें और तीसवें श्लोकों में तथा चैथे अध्याय के पंद्रहवें और बयालीसवें श्लोकों में अर्जुन को कर्मयोग के अनुष्ठान की स्पष्ट रूप से आज्ञा दे दी थी, तब फिर वे यहाँ यह बात किस प्रयोजन से पूछ रहे हैं?

उत्तर-यह तो ठीक है। परन्तु भगवान् ने चैथे अध्याय में चैबीसवें तीसवें श्लोक तक कर्मयोग और ज्ञान योग-दोनों ही निष्ठाओं के अनुसार कई प्रकार के विभिन्न साधनों का यज्ञ के नाम से वर्णन किया और वहाँ द्रव्यमय यज्ञ की अपेक्षा ज्ञान यज्ञ की प्रशंसा की, और तत्त्वदर्शी ज्ञानियों से ज्ञान का उपदेश प्राप्त करने के लिये प्रेरणा और प्रशंसा की फिर यह भी स्पष्ट कहा कि ‘कर्मयोग से पूर्णतया सिद्ध हुआ मनुष्य तत्त्वज्ञान को स्वयं ही प्राप्त कर लेता है। इस प्रकार दोनों ही साधनों की प्रशंसा सुनकर अर्जुन अपने लिये किसी एक कर्तव्य का निश्चय नहीं कर सके। इसलिये यहाँ वे यदि भगवान् का निश्चित मत जानने के लिए ऐसा प्रश्न करते हैं तो उचित ही करते हैं। यहाँ अर्जुन भगवान् से स्पष्टतया यह पूछना चाहते हैं कि ‘आनन्दकन्द श्रीकृष्ण! आप ही बतलाइये, मुझे यथार्थ तत्त्वज्ञान की प्राप्ति, तत्त्वज्ञानियों द्वारा श्रवण-मनन आदि साधनपूर्वक ‘ज्ञानयोग’ की विधि से करनी चाहिये या आसक्ति रहित होकर निष्कामभाव से भगवदर्पित कर्मों का सम्पादन करके ‘कर्मयोग’ की विधि से?

संन्यासः कर्मयोगश्चव निःश्रेयसकरावुभौ।

तयोस्तु कर्म संन्यासात्कर्मयोगो विशिष्यते।। 2।।

प्रश्न-यहाँ ‘संन्यास’ पद का क्या अर्थ है? 
उत्तर-‘सम्’ उपसर्ग का अर्थ है ‘सम्यक् प्रकार से’ और ‘न्यास’ का अर्थ है ‘त्याग’। ऐसा पूर्ण त्याग ही संन्यास है। यहाँ मन, वाणी और शरीर द्वारा होने वाली सम्पूर्ण क्रियाओं में, कर्तापन के अभिमान का और शरीर तथा समस्त संसार में अहंता ममता का पूर्णतया त्याग ही, ‘संन्यास’ शब्द का अर्थ है। गीता में ‘संन्यास’ और ‘संन्यासी’ शब्दों का प्रसंगानुसार विभिन्न अर्थों में प्रयोग हुआ है। कहीं कर्मों के भगवदर्पण करने को संन्यास कहा है और तो कहीं काम्यकर्मों के त्याग को; कहीं मन से कर्मों के त्याग को; कहीं मन से कर्मों के त्याग को, तो कहीं कर्मयोग को; कहीं सांख्य योग अर्थात् ज्ञान निष्ठा को ‘संन्यास’ कहा गया है। इसी प्रकार कहीं कर्मयोगी को ‘संन्यासी’ और ‘संन्यास योगयुक्तात्मा कहा गया है। इससे यह सिद्ध होता है कि गीता में ‘संन्यास’ शब्द सभी जगह एक ही अर्थ में व्यवहृत नहीं हुआ है। प्रकरण के अनुसार उसके पृथक्-पृथक् अर्थ होते हैं। यहाँ ‘सांख्ययोग’ और ‘कर्मयोग’ का तुलानात्मक विवेचन है। भगवान् ने चैथे और पाँचवें श्लोकांे में ‘संन्यास’ को ही ‘सांख्य’ कहकर भलीभाँति स्पष्टीकरण भी दिया है। अतएव यहाँ ‘संन्यास’ शब्द का अर्थ ‘‘सांख्य योग’ ही मानना युक्त है।
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