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कब तक खुद को छलते रहोगे

कब तक खुद को छलते रहोगे

रोशनी से घबराकर क्यों तिमिर में पलते रहोगे
अज्ञान की ओढ़ चादर खुद को यूं छलते रहोगे


आलोकित कर देता दीप रास्ता खुद देख लो
दुर्गम पथ पे राहें कठिन राही कुछ धीरे चलो
आंधी तूफान बाधाओं से पाला भी पड़ता होगा
कदम कदम खड़ी मुश्किलें संशय बढ़ता होगा
बैठे-बैठे ख्वाब सुरीले मन ही मन करते रहोगे
मंजिलें तय नहीं अभी तलक हाथ मलते रहोगे
कब तक खुद को छलते रहोगे


संस्कार मिले हैं हमको आचरण में कब भरोगे
शिक्षा संस्कार जो सीखे घट भीतर कब धरोगे
नैतिकता का पतन हो माहौल में ढलते रहोगे
मानवता त्याग कहो कब तलक चलते रहोगे
वक्त के थपेड़े खाकर आंधियों में पलते रहोगे
मुश्किलों से हार मान ली तो हाथ मलते रहोगे
बिना लक्ष्य पथ भूलभूलैया उसमें ढलते रहोगे
ठौर के अनुमान बिन कब तलक चलते रहोगे
कब तक खुद को छलते रहोगे


रमाकांत सोनी नवलगढ़जिला झुंझुनू राजस्थान
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