अर्जुन को सांख्य योग के साधन का ज्ञान
(हिफी डेस्क-हिन्दुस्तान फीचर सेवा)
रामायण अगर हमारे जीवन में मर्यादा का पाठ पढ़ाती है तो श्रीमद् भागवत गीता जीवन जीने की कला सिखाती है। द्वापर युग के महायुद्ध में जब महाधनुर्धर अर्जुन मोहग्रस्त हो गये, तब उनके सारथी बने योगेश्वर श्रीकृष्ण ने युद्ध मैदान के बीचोबीच रथ खड़ाकर उपदेश देकर अपने मित्र अर्जुन का मोह दूर किया और कर्तव्य का पथ दिखाया। इस प्रकार भगवान कृष्ण ने छोटे-छोटे राज्यों में बंटे भारत को एक सशक्त और अविभाज्य राष्ट्र बनाया था। गीता में गूढ़ शब्दों का प्रयोग किया गया है जिनकी विशद व्याख्या की जा सकती है। श्री जयदयाल गोयन्दका ने यह जनोपयोगी कार्य किया। उन्होंने श्रीमद भागवत गीता के कुछ गूढ़ शब्दों को जन सामान्य की भाषा में समझाने का प्रयास किया है ताकि गीता को जन सामान्य भी अपने जीवन में व्यावहारिक रूप से उतार सके। -प्रधान सम्पादक
प्रश्न-यहाँ ‘अपि’ का प्रयोग किस हेतु से किया गया है?
उत्तर-सांख्य योगी अपने को किसी भी कर्म का कर्ता नहीं मानता; उसके मन, बुद्धि और इन्द्रियों द्वारा सब क्रियाओं के होते रहने पर भी वह यही समझता है कि ‘मैं कुछ भी नहीं करता, गुण ही गुणों में बरत रहे हैं, मेरा इनसे कुछ भी सम्बन्ध नहीं है।’ इसलिये उसका तो कर्म से लिप्त न होना ठीक ही है, परन्तु अपने को कर्ता समझने वाला कर्मयोगी भी भगवान् के आज्ञानुसार और भगवान् के लिये सब कर्मों को करता हुआ भी कमों में फलेच्छा और आसक्ति न रहने के कारण उनसे नहीं बँधता। यह उसकी विशेषता है। इसी अभिप्राय से ‘अपि’ शब्द का प्रयोग किया गया है।
नैव किंचित्करोमीति युक्तो मन्यते तत्त्ववित्।
पश्य´श्रृण्वन्स्पृशंज्न्निश्रन्गच्छ स्वप´श्वसन्।। 8।।
प्रलपन्विसृजन्गृहृन्नुन्मिषन्निमिष्न्नपि।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु वर्तन्त इति धारयन्।। 9।।
प्रश्न-‘यहाँ ‘तत्त्ववित्’ और ‘युक्तः’ इन दोनों विशेषण पदों के प्रयोग का क्या अभिप्राय है?
उत्तर-सम्पूर्ण दृश्य-प्रपश्व क्षणभंगुर और अनित्य होने के कारण मृगतृष्णा के जल या स्वप्न के संसार की भाँति मायामय है, केवल एक सच्चिदानन्दधन ब्रह्म ही सत्य है। उसी में यह सारा प्रपंच माया से अध्यारोपित है-इस प्रकार नित्यानित्य वस्तु के तत्त्व को समझकर जो पुरुष निरन्तर निर्गुण-निराकार सच्चिदानन्दधन परब्रह्म परमात्मा से अभिन्न भाव से स्थित रहता है, वही ‘तत्त्ववित्’ और ‘युक्त’ है। सांख्य योग के साधक को ऐसा ही होना चाहिये। यही समझाने के लिये ये दोनों विशेषण दिये गये हैं।
प्रश्न-यहाँ देखने-सुनने आदि की सब क्रियाएं करते रहने पर भी मैं कुछ भी नहीं करता, इसका क्या भाव है?
उत्तर-जैसे स्वप्न से जगा हुआ मनुष्य समझता है कि स्वप्न काल में स्वप्न के शरीर, मन, प्राण और इन्द्रियों द्वारा मुझे जिन क्रियाओं के होने की प्रतीति होती थी, वास्तव में न तो वे क्रियाएं होती थीं और न मेरा उनसे कुछ भी सम्बन्ध ही था; वैसे ही तत्त्व को समझकर निर्विकार अक्रिय परमात्मा में अभिन्न भाव से स्थित रहने वाले सांख्य योगी को भी ज्ञानेन्द्रिय, कर्मेन्द्रिय, प्राण और मन आदि के द्वारा लोक दृष्टि से की जाने वाली देखने-सुनने आदि की समस्त क्रियाओं के करते समय ही समझना चाहिये कि ये सब मायामय मन, प्राण और इन्द्रिय ही अपने-अपने मायामय विषयों में विचर रहे हैं। वास्तव में न तो कुछ हो रहा है और न मेरा इनसे कुछ सम्बन्ध ही है।
प्रश्न-तब तो जो मनुष्य राग-द्वेष और काम-क्रोधादि दोषों के रहने पर भी अपनी मान्यता के अनुसार सांख्ययोगी बने हुए हैं, वे भी कह सकते हैं कि हमारे मन-इन्द्रिय के द्वारा जो कुछ भी भली-बुरी क्रियाएँ होती हैं, उनसे हमारा कुछ भी सम्बन्ध नहीं है। ऐसी अवस्था में यथार्थ सांख्य योगी की पहचान कैसे होगी?
उत्तर-कथन मात्र से न तो कोई सांख्य योगी ही हो सकता है और न उसका कर्मों से सम्बन्ध ही छूट सकता है। सच्चे और वास्तविक सांख्य योगी के ज्ञान में तो सम्पूर्ण प्रपंच स्वप्न की भाँति मायामय होता है, इसलिये उसकी किसी भी वस्तु में किंचित भी आसक्ति नहीं रहती। उसमें राग-द्वेष का सर्वथा अभाव हो जाता है और काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार आदि दोष उसमें जरा भी नहीं रहते। ऐसी अवस्था में निषिद्धाचरण का कोई भी हेतु न रहने के कारण उसके विशुद्ध मन और इन्द्रियों द्वारा जो भी चेष्टाएँ होती हैं, सब शास्त्रानुकूल और लोकहित के लिये ही होती हैं। वास्तविक सांख्य योगी की यही पहचान है। जब तक अपने अंदर राग-द्वेष और काम-क्रोधादि का कुछ भी अस्तित्व जान पड़े तब तक सांख्य योगी के साधक को अपने साधन में त्रुटि ही समझनी चाहिये।
प्रश्न-सांख्य योगी शरीर निर्वाह मात्र के लिये केवल खान-पान आदि आवश्यक क्रिया ही करता है या वर्णाश्रमानुसार शास्त्रानुकूल सभी कर्म करता है?
उत्तर-कोई खास नियम नहीं है। वर्ण, आश्रम, प्रकृति, प्रारब्ध, संग और अभ्यास का भेद होने के कारण सभी सांख्य योगियों के कर्म एक-से नहीं होते। यहाँ ‘पश्यन्, श्रृण्वन्, स्पृशन्, जिघ्रन्’ और ‘अश्वन्’ इन पाँच पदों से आँख, कान, त्वचा, घ्राण और रसना-इन पाँच ज्ञानेन्द्रियों की समस्त क्रियाएँ क्रम से बतलायी गयी हैं। ‘गच्छन्’, गृहन्’ और ‘प्रलपन्’ से पैर, हाथ और वाणी की एवं ‘त्रिसृजन्’ से उपस्थ और गुदा की, इस प्रकार पाँचों कर्मेन्द्रियों की क्रियाएँ बतलायी गयी हैं। ‘श्रृसन’् पद प्राण-अपानादि पाँचों प्राणों की क्रियाओं का बोधक है। वैसे ही ‘उन्मिषन्’ निमिषन्’ पद कूर्म आदि पाँचों वायु भेदों की क्रियाओं के बोधक हैं और ‘स्वप्न्’ पद अन्तःकरण की क्रियाओं का बोधक है। इस प्रकार सम्पूर्ण इन्द्रिय, प्राण और अन्तःकरण की क्रियाओं का उल्लेख होने के कारण सांख्य योगी के द्वारा उसके वर्ण, आश्रम, प्रकृति, प्रारब्ध और संग के अनुसार शरीर निर्वाह तथा लोकोपकारार्थ, शास्त्रानुकूल खान-पान, व्यापार, उपदेश लिखना, पढ़ना, सुनना, सोचना आदि सभी क्रियाएँ हो सकती हैं।
प्रश्न-तीसरे अध्याय के अट्ठाइसवें श्लोक में कहा गया है कि ‘गुण ही गुणों में बरतते हैं’ तथा तेरहवें अध्याय के उन्तीसवें श्लोक में ‘समस्त कर्म प्रकृति द्वारा किये हुए’ बतलाये गये हैं और यहाँ कहा गया है कि ‘इन्द्रियाँ ही इन्द्रियों के अर्थों में बरतती हैं‘-इस तीन प्रकार के वर्णन का क्या अभिप्राय है?
उत्तर-इन्द्रिया और उनके समस्त विषय सत्त्वादि तीनों गुणों के कार्य हैं और तीनों गुण प्रकृति के कार्य हैं। अतएव, चाहे सब कर्मों को प्रकृति के द्वारा किये हुए बतलाया जाय, अथवा गुणों का गुणों में या इन्द्रियों का इन्द्रियों के अर्थों में बरतना कहा जाय, बात एक ही है। सिद्धान्त की पुष्टि के लिये ही प्रसंगानुसार एक ही बात तीन प्रकार से कही गयी
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