गीता का शाश्वत संदेश
(डॉ दिलीप अग्निहोत्री-हिन्दुस्तान फीचर सेवा)
भगवत गीता में विचलित मन को स्थितप्रज्ञ बनाने के वैज्ञानिक सूत्र है। आधुनिक विज्ञान ने भी इस तथ्य को स्वीकार किया है। विकसित देशों तक कर्मयोग की गूंज है। इसके माध्यम से वह कुशल प्रबंधन की प्रेरणा ले रहे हैं। बड़ी संख्या में विदेशों के विश्वविद्यालयों ने भगवत गीता को अपने पाठ्यक्रम में स्थान दिया है। भारत की विरासत विश्व स्तर पर प्रतिष्ठित हो रही है। ऐसे में भारत की जिम्मेदारी बढ़ गई है। उसे अपनी विरासत पर गर्व के साथ ही इस पर अमल करके दिखाना होगा। भगवत गीता धार्मिक ग्रंथ मात्र नहीं है। इसमें निजी और समाज जीवन का कुशल प्रबंधन है। भगवान श्री कृष्ण ने गीता का उपदेश युद्ध स्थल पर दिया था। एक तरफ कौरव दूसरी ओर पांडव सेना युद्ध के लिए तैयार खड़ी थी। अर्जुन का मन विचलित था। उचित अनुचित का निर्णय करना उनके लिए कठिन था। वह दिग्भर्मित थे। लेकिन उन्होंने एक काम बहुत बढ़िया किया था। अर्जुन ने अपने रथ की कमान प्रभु श्रीकृष्ण को सौप दी थी।इसी परिस्थिति में सारथी बने प्रभु ने किंकर्तव्यविमूढ़ अर्जुन को गीता का उपदेश दिया था। यह प्रसंग आज भी प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में परिलक्षित होता है। कई बार अपना ही मन हृदय युद्ध स्थल जैसा हो जाता है। कौरव व पांडव की तरह परस्पर विरोधी विचारों के बीच द्वंद की स्थिति बनती है। उचित का निर्णय करना कठिन हो जाता है। शरीर भी दस इंद्रियों का रथ ही तो है। प्रभु को सारथी बना कर कर्म करता चल, अर्थात गीता के उपदेश के अनुरूप कर्म करना चाहिए। फल पर नियंत्रण नहीं है। जय पराजय, सुख दुख सभी में सम् भाव रहकर कर्म करने का उपदेश प्रभु ने अपने सखा अर्जुन को दिया था। इससे सुंदर प्रबंधन का अन्य कोई सूत्र हो नहीं सकता।
यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः।
तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम।
-जहाँ योगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण हैं और जहाँ गाण्डीव-धनुषधारी अर्जुन है, वहीं पर श्री, विजय, विभूति और अचल नीति है।
गीता में जीवन प्रबंधन है, भ्रम से बाहर निकलने का मार्ग है। आज के जीवन मे जो तनाव है, उसे गीता के नियमित पाठ से दूर किया जा सकता है। इसके पाठ से धर्म आधारित कर्म का भाव जागृत होता है। कर्मयोग की प्रेरणा मिलती है। प्रभु कहते हैं
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि।
अर्थात तेरा कर्म करने में ही अधिकार है, उसके फलों में कभी नहीं। इसलिए तू फल की दृष्टि से कर्म मत कर और न ही ऐसा सोच की फल की आशा के बिना कर्म क्यों करूं।
निष्काम कर्म ही कर्मयोग की श्रेणी में आता है। जिसके सभी कर्म कामना रहित हैं और जिसके सभी कर्म ज्ञान रूपी अग्नि से भस्म हो गए हैं, उनको बुद्धिमान लोग पंडित की उपाधि से विभूषित करते हैं।
यस्य सर्वे समारम्भाः कामसंकल्पवर्जिताः ।
ज्ञानाग्निदग्धकर्माणं तमाहुः पंडितं बुधाः ।।
श्रीमद् भगवद् गीता भाव प्रसार परिषद् भी अपने नाम के अनुरूप कार्य कर रही है। श्रीमद् भगवद् गीता के ज्ञान को जन जन तक पहुँचाने का प्रयास किया जा रहा है। वर्तमान परिवेश में मनुष्यों की अतृप्ति के वास्तविक कारण पर विचार आवश्यक है। मानव जीवन के वास्तविक लक्ष्य निर्धारित होने चाहिए।
इस संदर्भ में कोई सकारात्मक चिंतन अपेक्षित है। आशाओं और आकांक्षाओं के नैतिक अस्तित्व पर भी सोचना चाहिए। अपनी प्राप्ति का विश्लेषण करना चाहिए। भौतिक जगत की नश्वर समृद्धि की प्राप्ति जीवन की सिद्धि नहीं हो सकती। श्रेयस की रिक्ति में केवल अभ्युदय का संधान ही किया गया। ऐसे में नित्य आनंद की प्राप्ति असंभव है। श्रीमद् भगवद् गीता समस्त जीव जगत की भाव अनुरूप जिज्ञासाओं को अपने सिद्धांत समूह के द्वारा शांत कर सकती है। वह जीवन के वास्तविक प्रश्नों को बड़ी सरलता से व्यक्त करती है। जीवन के वास्तविक उद्देश्यों से हमरा साक्षात्कार करा सकती है। यही धर्म की शुद्ध कसौटी है जो संशय और भ्रम की स्थिति में उचित मार्ग दिखा सकती है। सत्य के दर्शन का लक्ष्य ही श्रेष्ठ है। गीता में यहां तक पहुँचने का मार्ग है।
भगवान श्री कृष्ण सोलह कलाओं से युक्त थे। भारतीय दर्शन में उनकी अपार महिमा का गुणगान किया गया-
अच्युतं केशवं राम नारायणम,
कृष्ण दामोदरं वासुदेवं हरिं।
शास्त्रों में मनुष्य की सौ वर्ष की सामान्य आयु मानी गई। पहले ऐसा ही था। इसमें पचास वर्ष की आयु के बाद पच्चीस वर्ष तक वानप्रस्थ तथा अंतिम पच्चीस वर्ष संन्यास की व्यवस्था थी। संन्यास में व्यक्ति सभी भौतिक सम्पत्ति, साधनों का त्याग करके तपस्या के लिए वन में चला जाता था। आज यह व्यवस्था व्यावहारिक नहीं मानी जा सकती। न सौ वर्ष की स्वस्थ आयु रही, न वन जाकर तपस्या करना संभव रहा। ऐसे में आज व्यक्ति को इक्यावन की अवस्था से ही अपने हृदय को वृंदावन बनाने का प्रयास करना चाहिए। किसी बाहरी वन में जाने की आवश्यकता नहीं है। घर गृहस्थी के त्याग की भी जरूरत नहीं। मन को वृंदावन बनाने का मतलब है कि अध्यात्म की भावभूमि तैयार की जाए,जिसमें भौतिक जगत में रहते हुए भी उसके प्रति अनाशक्त भाव हो। सबके साथ रहते हुए भी मोहमाया के बंधन न हो। ईर्ष्या, द्वेष, निन्दा, छल-कपट आदि से मुक्त हो। ईश्वर के प्रति समर्पण भाव हो, तो मन में ही वृंदावन निर्मित होने लगेगा। इस भावभूमि में ईश्वर की अनुभूति होगी। सतयुग में ईश्वर की आराधना सर्वाधिक कठोर थी। हजारों वर्ष तप करना पड़ता था, अन्न-जल का त्याग करना पड़ता था। किन्तु क्रमशरू प्रत्येक युग में साधना सरल होती गई। कलियुग में यह सर्वाधिक सरल है। गोस्वामी जी ने कहा कलियुग केवल नाम अधारा। अर्थात इसमें ईश्वर का नाम लेना, स्मरण करना,कथा सुनना,स्वाध्याय करना, सत्संग करना आदि ही पर्याफ्त होता है। यह सच है कि तप, विशाल यज्ञ आदि आज सबके लिए संभव ही नहीं है। गृहस्थ जीवन में प्रभु के नाम का स्मरण ही भवसागर को पार करा सकता है। सतयुग में हजारों वर्ष की तपस्या कपोल कल्पना मात्र नहीं है। तब व्यक्ति की आयु इतनी हुआ करती थी। वह हजारों वर्ष तप में लगा देता था। मनु शतरूपा ने पच्चीस हजार वर्ष तप किया था। सतयुग में औसत आयु एक लाख वर्ष,त्रेता में दस हजार वर्ष,द्वापर में एक हजार वर्ष तथा कलियुग के प्रारंभिक चरण में मानव की औसत आयु सौ वर्ष थी। आज मेडिकल साइंस के तमाम प्रयासों के बाद औसत आयु सत्तर वर्ष है। ऐसे में पिछले तीन युगों की भांति तपस्या की ही नहीं जा सकती। फिर भी आज धर्म, अर्थ, काम का पालन करते हुए, मोक्ष की ओर बढ़ा जा सकता है। धर्म के अनुकूल अर्थ का उपार्जन किया जाए, तभी वह शुभ या कल्याणकारी होता है। अधर्म से कमाया गया धन प्रारंभ में बहुत अच्छा लग सकता है, उसकी खूब चकाचैंध नजर आती है,सुख सुविधाओं के अंबार लग जाते हैं, लेकिन बाद में यह अनर्थ साबित होता है। आज व्यक्ति का शरीर भी तप के अनुकूल नहीं रहा। आहार तो अन्य जीव भी ग्रहण करते है। मनुष्य के पास विवेक होता है। इस विवेक के बल पर वह इहलोक के साथ अपना परलोक भी सुधार सकता है।
हमारे खबरों को शेयर करना न भूलें| हमारे यूटूब चैनल से अवश्य जुड़ें https://www.youtube.com/divyarashminews https://www.facebook.com/divyarashmimag
0 टिप्पणियाँ
दिव्य रश्मि की खबरों को प्राप्त करने के लिए हमारे खबरों को लाइक ओर पोर्टल को सब्सक्राइब करना ना भूले| दिव्य रश्मि समाचार यूट्यूब पर हमारे चैनल Divya Rashmi News को लाईक करें |
खबरों के लिए एवं जुड़ने के लिए सम्पर्क करें contact@divyarashmi.com