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सुर रूप असुर हैं दिखते ,

सुर रूप असुर हैं दिखते ,

किसको कहूँ भगवान रे ।
नारी धरा को स्वर्ग बनाती ,
नारी नर्किस्तान रे ।।
नर को केवल दोष दूँ कैसे ,
क्या नारी नहीं है साथ में ।
पर पुरुष संग चल देती है ,
प्रतिष्ठा नहीं उसके हाथ में ।।
सज्जन थोड़े दुर्जन भरे हैं ,
कैसे करूँ पहचान रे ।
नारी धरा को स्वर्ग बनाती ,
नारी नर्किस्तान रे ।।
प्रतिष्ठा बेंच मिलेगा धन भी ,
नाम ऐश्वर्य बढ़ जाएगा ।
प्रतिष्ठा तो मिलेगा धूल में ,
सिर भी सूली चढ़ जाएगा ।।
ईश रूप शैतान हैं दिखते ,
किसको मानूँ इन्सान रे ।
नारी धरा को स्वर्ग बनाती ,
नारी नर्किस्तान रे ।।
पर पुरुष या पर स्त्री गमन ,
अति घनघोर यह पाप है ।
भला बुरा निज नहीं सूझता ,
यह जीवन हेतु अभिशाप है ।।
माता पिता दुश्मन दिखते ,
अपनी शान आलीशान रे ।
नारी धरा को स्वर्ग बनाती ,
नारी नर्किस्तान रे ।।
पूर्णतः मौलिक एवं
अप्रकाशित रचना
अरुण दिव्यांश 
डुमरी अड्डा
छपरा ( सारण )
बिहार ।
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