परमात्मा की प्राप्ति का मार्ग ध्यान योग
(हिफी डेस्क-हिन्दुस्तान फीचर सेवा)
रामायण अगर हमारे जीवन में मर्यादा का पाठ पढ़ाती है तो श्रीमद् भागवत गीता जीवन जीने की कला सिखाती है। द्वापर युग के महायुद्ध में जब महाधनुर्धर अर्जुन मोहग्रस्त हो गये, तब उनके सारथी बने योगेश्वर श्रीकृष्ण ने युद्ध मैदान के बीचोबीच रथ खड़ाकर उपदेश देकर अपने मित्र अर्जुन का मोह दूर किया और कर्तव्य का पथ दिखाया। इस प्रकार भगवान कृष्ण ने छोटे-छोटे राज्यों में बंटे भारत को एक सशक्त और अविभाज्य राष्ट्र बनाया था। गीता में गूढ़ शब्दों का प्रयोग किया गया है जिनकी विशद व्याख्या की जा सकती है। श्री जयदयाल गोयन्दका ने यह जनोपयोगी कार्य किया। उन्होंने श्रीमद भागवत गीता के कुछ गूढ़ शब्दों को जन सामान्य की भाषा में समझाने का प्रयास किया है ताकि गीता को जन सामान्य भी अपने जीवन में व्यावहारिक रूप से उतार सके। -प्रधान सम्पादक
भगवान् श्रीकृष्ण का ध्यान
कुरुक्षेत्र का रणांगण है, चारों ओर वीरों के समूह युद्ध के लिये यथो योग्य खड़े हैं। वहाँ अर्जुन का परम तेजोमय विशाल रथ है। रथ की विशाल ध्वजा में चन्द्रमा और तारे चमक रहे हैं। ध्वजा पर महावीर श्रीहनुमान जी विराजमान हैं, अनेकों पताकाएँ फहरा रही हैं। रथ पर आगे के भाग पर भगवान् श्रीकृष्ण विराजमान हैं, नील श्याम वर्ण है। सुन्दरता की सीमा हैं, वीरवेष हैं, कवच पहने हुए हैं, देह पर पीताम्बर शोभा पा रहा है। मुख मण्डल अत्यन्त शान्त है। ज्ञान की परम दीप्ति से सब अंग जगमगा रहे हैं। विशाल और रक्ता में नेत्रों से ज्ञान की ज्योति निकल रही है। एक हाथ में घोड़ों की लगाम है और दूसरा हाथ ज्ञान मुद्रा में सुशोभित है। बड़ी ही शान्ति और धीरता के साथ अर्जुन को गीता का महान् उपदेश दे रहे हैं। होठों पर मधुर मुसकान छिटक रही है। नेत्रों से संकेत कर-करके अर्जुन की शंकाओं का समाधान कर रहे हैं।
युअज्न्नेवं सदात्मानं योगी नियतमानसः।
शान्ति निर्वाणपरमां मत्संस्थामधिगच्छति।। 15।।
प्रश्न-यहाँ ‘योगी’ के साथ ‘नियतमानसः’ विशेषण देने का क्या अभिप्राय है?
उत्तर-जिसका मन अन्तःकरण भलीभाँति वश में किया हुआ है, उसे ‘नियत मानस’ कहते हैं। ऐसा साधक ही उपर्युक्त प्रकार से ध्यान योग का साधन कर सकता है, यही बात दिखलाने के लिये ‘योगी’ के साथ ‘नियम मानसः’ विशेषण दिया गया है।
प्रश्न-इस प्रकार आत्मा को निरन्तर परमेश्वर के स्वरूप में लगाना क्या है?
उत्तर-उपर्युक्त प्रकार से मन-बुद्धि के द्वारा निरन्तर तैल धारा की भाँति अविच्छिन्न भाव से भगवान् के स्वरूप का चिन्तन करना और उसमंे अटल भाव से तन्मय हो जाना ही आत्मा को परमेश्वर के स्वरूप में लगाना है।
प्रश्न-‘मुझमें रहने वाली परमानन्द की परकाष्ठा रूप शान्ति को प्राप्त होता है’ इस कथन का क्या अभिप्राय है?
उत्तर-यह उसी शान्ति का वर्णन है जिसे नैष्टिकी शान्ति, शाश्वती शान्ति, और परा शान्ति कहते हैं और जिसका परमेश्वर की प्राप्ति, परम दिव्य पुरुष की प्राप्ति; परम गति की प्राप्ति आदि नामों से वर्णन किया जाता है। वह शान्ति अद्वितीय अनन्त आनन्द की अवधि है और यह परम दयालु, परम सुहृद, आनन्द निधि, आनन्द स्वरूप भगवान् में नित्य-निरन्तर अचल और अटल भाव से निवास करती है। ध्यान योग का साधक इसी शान्ति को प्राप्त करता है।
नात्यश्रन्तस्तु योगोऽस्ति न चैकान्त मनश्रन्तः।
न चाति स्वप्न शीलस्य जाग्रतो नैव चार्जुन।। 16।।
प्रश्न-यहाँ ‘योग’ शब्द किसका वाचक है?
उत्तर-परमात्मा की प्राप्ति के जितने भी उपाय हैं, सभी का नाम ‘योग’ है। किन्तु यहाँ ‘ध्यान योग’ का प्रसंग है, इसलिये यहाँ ‘योग’ शब्द को उस ‘ध्यान योग’ का वाचक समझना चाहिये, जो सम्पूर्ण दुःखों का आत्यन्तिक नाश करके परमानन्द और परम शान्ति के समुद्र परमेश्वर की प्राप्ति करा देने वाला है।
प्रश्न-बहुत खाने वाले का और बिल्कुल ही न खाने वाले का ध्यान योग क्यों नहीं सिद्ध होता?
उत्तर-ठूँस-ठूँसकर खा लेने से नींद और आलस्य बढ़ जाते हैं; साथ ही पचाने की शक्ति से अधिक, पेट में पहुँचा हुआ अन्न भाँति-भाँति के रोग उत्पन्न करता है। इसी प्रकार जो अन्न का सर्वथा त्याग करके कोरे उपवास करने लगता है, उसकी इन्द्रिय, प्राण और मन की शक्ति का बुरी तरह ह्ास हो जाता है; ऐसा होने पर न तो आसन पर स्थिर रूप से बैठा जा सकता है और न परमेश्वर के स्वरूप में मन ही लगाया जा सकता है। इस प्रकार ध्यान के साधन में विघ्न उपस्थित हो जाता है। इसलिये ध्यान योगी को न तो आवश्यकता से और पचाने की शक्ति से अधिक खाना ही चाहिये और न कोरा उपवास ही करना चाहिये।
प्रश्न-बहुत सोने वाले और सदा जागने वाले का ध्यान योग सिद्ध नहीं होता, इसमें क्या हेतु है?
उत्तर-उचित मात्रा में नींद ली जाय तो उससे थकावट दूर होकर शरीर में ताजगी आती है; परन्तु वही नींद यदि आवश्यकता से अधिक ली जाय तो उससे तमोगुण बढ़ जाता है, जिससे अनवरत आलस्य घेरे रहता है और स्थिर होकर बैठने में कष्ट मालूम होता है। इसके अतिरिक्त अधिक सोने में मानव जीवन का अमूल्य समय तो नष्ट होता ही है। इसी प्रकार सदा जागते रहने से थकावट बनी रहती है। कभी ताजगी नहीं आती। शरीर, इन्द्रिय और प्राण शिथिल हो जाते हैं, शरीर में कई प्रकार के रोग उत्पन्न हो जाते हैं और सब समय नींद तथा आलस्य सताया करते हैं। इस प्रकार बहुत सोना और सदा जागते रहना दोनों ही ध्यान योग के साधन में विघ्न करने वाले होते हैं। अतएव ध्यान योगी को, शरीर स्वस्थ रहे और ध्यान योग के साधन में विघ्न उपस्थित न हो-इस उद्देश्य से अपने शरीर की स्थिति, प्रकृति, स्वास्थ्य और अवस्था का ख्याल रखते हुए न तो आवश्यकता से अधिक सोना चाहिये, और न सदा जागते ही रहना चाहिये।
युक्ताहार विहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु।
युक्त स्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःखहा।। 17।।
प्रश्न-युक्त आहार-विहार करने वाला किसे कहते हैं?
उत्तर-खान-पान की वस्तुओं का नाम आहार है और चलने-फिरने की ़िक्रया का नाम विहार है। ये दोनों जिसके उचित स्वरूप में और उचित परिणाम हों, उसे युक्त आहर-विहार करने वाला कहा करते हैं। खाने-पीने की वस्तुएँ ऐसी होनी चाहिये जो अपने वर्ण और आश्रय धर्म के अनुसार सत्य और न्याय के द्वारा प्राप्त हों, शास्त्रानुकूल, सात्त्विक हों, रजोगुण और तमोगुण को बढ़ाने वाली न हों, पवित्र हों, अपनी प्रकृति, स्थिति और रुचि के प्रतिकूल न हों तथा योग
साधन में सहायता देने वाली हों। उनका परिणाम भी उतना ही परिमिति होना चाहिये, जितना अपनी शक्ति, स्वास्थ्य और साधन की दृष्टि से हितकर एवं आवश्यक हो। इसी प्रकार घूमना-फिरना भी उतना ही चाहिये जितना अपने लिये आवश्यक और हितकर हो। ऐसे नियमित और उचित आहार-विहार से शरीर, प्रसन्नता और चेतनता की वृद्धि हो जाती है, जिससे ध्यान योग सुगमता से सिद्ध होता है।
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