जीवन गाथा
जय प्रकाश कुँवर
मेरे सिरहाने , एक तकिया लगा दो ;
बहुत थक चुका हूं , मुझे अब सुला दो।
मैं बचपन से अब तक , दौड़ता ही रहा हूं ;
थक गए पैर मेरे , अब कोई दवा दो ।
मैं बहुत थक चुका हूं , मुझे अब सुला दो ।
कर्तव्यों ने मुझको , खुब तोड़ा मरोड़ा ;
पुरा करने खातिर , बहुत भागा दौड़ा ।
जो हासिल हुआ कुछ ,न खुश सब हो पाए ;
कर्तव्य पथ पथिक बन , हमने जीवन गंवाए ।
कटते थे दिन तुम्हारे , अपने रसोईघर में ;
चिन्ता न था कोई दूसरा , उस यौवन उमर में ।
भरा पेट तुमने सबका , जो जिसके मन भाया ;
हमने मेहनत कर कर के , घर अपना सजाया ।
अब सब बड़े हुए तब , सब लगता है सपना ;
कोई हाल तक न पुछे , किसको कहोगी अपना ।
सब अपनी दूनियां में , अब व्यस्त हो गए हैं ;
अब ना रहे वो बच्चे , सब वयस्क हो गये हैं ।
सिखा जिन्होंने चलना , मेरी उंगलियां पकड़ कर ;
वे अब हमें सिखाते , पड़े रहने को बिस्तर पर ।
कल तक वे थे हमारे , अब उनका परिवार हो गया है ;
हम भ्रम पाले हुए हैं , वे खुशी से जी रहे हैं ।
अब थकान सी है लगती , हो सके तो दो सहारा ;
कट गयी उम्र सारी , अब नजदीक है किनारा ।
आज सबके जीवन की, बस यही कहानी है ;रोने से कुछ न होगा , हंसते हुए जीवन बितानी है ।
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