भाव लघुतर थे,वृहत्तर हो रहे।
स्नेह का साकल्य गंधिल ही रहा
चंदनी अनुभाव अनुव्रत-से हुए
प्रीत धर्मा ज्योति के आभास से
नयन पट के वक्ष से अनुरत हुए।
चेतना के उत्स तत्पर हो रहे।
कथाएँ आबद्ध जो करती रहीं
चित्त की समिधा भले जलती रहीं
मंत्र शोधित तंत्र के संवेग में
अंतरिक्ष वितान भी तनती रहीं।
युवा धीरज और युवतर हो रहे।
अनय के परिरमण की स्वच्छंदता
कहाँ डूबी निष्कपट उद्विग्नता
शुष्क दूर्वा -विचारों की वैखरी
ओढ़ लेती है सदैव प्रसन्नता।
स्र्रोत कमतर थे अवांतर हो रहे।
डा रामकृष्ण
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