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दिल और मन

दिल और मन

दिलमें दीपक जल उठे
देख तुझे फिर से।
लौटा हूँ अपने घर
जो वर्षो के बाद।
हाल तेरा मैं कैसे पूंछू
बात करने से डरता हूँ।
कहने सुनने के लिए
नहीं बचा है अब कुछ।।


मन की बातें मन ही जाने
दिल फिर क्यों रोता है।
हंसी खुशी के माहौल में
तू क्यों दुखी होता है।
पास से ही देख रहे
फिर भी तू क्यों ओझल।
लगता है ये दिल अब
और किसी का हो चुका।।


दर्द उसे होता है पर
आँसू मेरे गिरते है।
सपनो में न जाने क्यों
रोज रोज वो देखते है।
कुछ तो उनसे रिश्ता है
तभी वो रोज दिखते है।
न खुद सोते है और
न हमें भी सोने देते है।।


प्यार मोहब्बत का खेल
बहुत निराला लगता है।
जिसमें एक मेहबूबा और
एक मेहबूब जो होता है।
दर्द किसी को भी हो पर
सहना दोनों को पड़ता है।
शायद इसी को लोग
दिल का रिश्ता कहते है।।


जय जिनेंद्रसंजय जैन "बीना" मुंबई
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