अपना कोई चिन्तित हो, ख़ुश कैसे रह सकते हैं,
अपना कोई पीड़ित हो तो, चुप कैसे रह सकते हैं?
माना व्यक्त नहीं कर पाते, मन में उमड़ रहे भावों को,
अपनों की आँखों में आँसू, शुभ कैसे कह सकते हैं?
पीड़ित रहकर क्या हम, दर्द घना बिसरा सकते हैं,
नीर बहाकर आँखों से क्या, पीर घनी मिटा सकते हैं?
चिन्ताओं को बिसराकर, नई राह फिर चलना होगा,
गुजरे लम्हों को बिसराकर, नयी राह बना सकते हैं।
चिन्तित होने से अक्सर, चिन्तायें बढ़ जाती हैं,
तनाव बढ़ा तो घर बाहर भी, बाधायें बढ़ जाती हैं।
जाने कितनी बढ़ें व्याधियाँ, रक्तचाप व्यथित करता,
नये मार्ग पर चलना सोचा, सब बाधायें मिट जाती हैं।
अ कीर्ति वर्द्धन
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