रंग-विरंगे फूलों जैसे
अंतर्मन उद्गार हुए ।
साँझी की रचनाओं में रँग
हँसी- हँसी में प्यार हुए ।।
कहाँ कौन कितना भूखा-
प्यासा बैठा है अनुरागी ,
नयी चाह लेकर सतरंगी
खोज रहा बनकर त्यागी।
साँसों की गति विधियों में
कुछ गीत नये स्वीकार हुए।।
जिस आहट की अगुआई का
नाम न कोई हो सकता ,
मन के द्वार दिखे जो पाहुन
भार न कोई ढो सकता ।
सात सुरों के बज उठते ही
अबस सुखद मनुहार हुए।।
वीणा -सी झंकृति में सपने
लीन हो गये नर्तन में
तन-मन बेसुध -से जाने क्यों
मुग्ध हुए परिवर्तन में ।
आत्मलीन वांछित अपनापन के
निर्द्वंद्व विचार हुए।।
डाॅ रामकृष्ण
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