टूट ना जाये
गया था आज उनके घर
पूछने हाल चाल उनका।
मगर थे नहीं घर पर वो
इसलिए लिख आया पर्ची पर।
जब आयेंगे वो घर पर
तो पड़ लेंगे मेरी चिट्ठी।
और मिलकर या लिखकर
बताता देंगे अपना हालचाल।।
मिला है जब मानव जन्म
तो जीना इसे पड़ेगा।
लक्ष्य जीवन का अपना
मुझे हासिल करना पड़ेगा।
भले ही बिछे हो राहे में
लाख कांटे मेरे लिए।
मगर मुझे उन पर तो
अपनो के लिए चलना पड़ेगा।।
सोच रहा हूँ लेट हुए तब से
जब से आया हूँ उनके घर से।
क्या वो अपने घर लौट आये
या अभी भी बहार ही है।
और क्या उन्होंने मेरी चिट्ठी
पढ़ी या नहीं पढ़ी ।
क्या उनका कोई संदेश
हम तक आयेगा...।।
कब तक हम यूँही जीयेंगे
हर बात की चिंता करेंगे।
खुद को देखेंगे हम या
औरो के लिये ही जीयेंगे।
फिर भी जमाने की खतीर
सहमे सहमे से रहेंगे।
जिसके चलते सब्र टूट न जाये
और कही दिल टूट न जाये।।
जय जिनेंद्र
संजय जैन "बीना" मुंबई
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