वटेसर काका का कुर्सी संरक्षण
कमलेश पुण्यार्क "गुरूजी"
इधर कुछ दिनों से वटेसर काका कुछ व्यथित हैं। यदा-कदा गति-विधि वाले काका की बाहरी आवाजाही भी काफी बढ़ गयी है। ऐसे में परेशानी का अनायास बढ़ जाना स्वाभाविक है। संयोग से भेंट हो गयी चौराहे पर,तो पूछ बैठा औपचारिक-अनौपचारिक हाल-चाल।
हालाँकि हालचाल पूछने की आजकल वाली परिपाटी भी काबिलेतारीफ है। ‘ठीक है न?’ से ही सवाल शुरु होता है। यानी पूछने वाला पहले से सर्वथा-सर्वदा आस्वस्थ होता है कि सबकुछ ठीक-ठाक है। बहुत बार तो ऐसा भी होता है कि ‘ठीक ही होंगे’ ‘ठीक ही रहना चाहिए’ जैसे कॉपी-पेस्ट मार्का जवाब खुद ही देते हुए, आगे निकल जाते हैं, किसी काम की जल्दबाजी दिखाकर।
किन्तु मेरी ये आदत नहीं है। मैं उस अस्त-व्यस्त-पस्त किस्म का प्राणी नहीं हूँ। हाल-चाल लूँगा किसी का तो जमकर, जीभर कर। नहीं लिया तो हो सकता है महीनों-वर्षों गुजर जाएं।
सच पूछा जाए तो किसी का हालचाल हम लेते कहाँ हैं? पारिवारिक मिलन हो या सामाजिक या कि राजनैतिक, चर्चाएं सिर्फ राजनैतिक या कूटनैतिक या दुष्टनैतिक ही होती हैं। प्रपंच चर्चा ज्यादा,जरुरी बातें न के बराबर।
खैर,जो भी हो,वटेसरकाका ऐसे नहीं हैं।
‘कहिए काका कैसे हैं ? ’
पंवलग्गी और मेरे सवाल के साथ ही शुरु हो गए— “क्या कहूँ बचवा ! कि कैसा हूँ? हूँ—वस इतना ही जान लो। कई दिनों से सोच रहा था कि पुरनका कुरसीया के लिए एगो बढ़ियाँ तोपना ले आऊँ। चलो अच्छा ही हुआ कि इसी बहाने तुमसे भेंट हो गयी। ”
उनके मुँह से ‘पुरनका कुरसीया’ सुनते ही ध्यान आया—पाँच साल पहले उनके एक प्रियजन ने अपना प्रवास बदलते समय बाकी सब तो साथ ले गए,किन्तु एक पुरानी कुर्सी वटेसरकाका को ये कहते हुए सौंप गए थे कि इसका हिफाज़त कीजियेगा। जबतक मन करे उपयोग कीजियेगा, क्यों कि अभी उनकी नज़र में इसका सही हिफाज़त करने वाला कोई नज़र नहीं आ रहा है।
ना-नुकूर, मीन-मेष करने पर काका को उस शुभेच्छु ने बतलाया था कि ये कुर्सी बड़ी बेसकीमती और ऐतिहासिक है। समय मिला तो कभी बाद में सब खुलासा बतलाऊँगा। कुछ लिखित कागज़ात भी है,वो भी दिखलाऊँगा। अभी तो विश्वव्यापी कोरोना संकटकाल से खुद ही जूझ रहा हूँ। माँ-पिताजी सब पकड़ाए हुए हैं। कौन बचे,कौन जाए—भगवान जाने। किन्तु ध्यान रहे—ई कुर्सीया को चक्रवर्ती विक्रमादित्य वाले सिंहासन बतीसी से जरा भी कम न समझियेगा। इसपर बैठने के लिए कई बार तो देवराज इन्द्र भी दावेदारी दिखा चुके हैं। वो तो कहिए कि आपसे मेरा इतना स्नेह है, आपकी इतनी इज्जत करता हूँ, आपको इतना योग्य समझता हूँ कि ये जिम्मेवारी आपको सौंपकर स्वयं को भाग्यवान समझ रहा हूँ...। शुभेच्छु गए सो गए। आकर,मिलकर,खोज-खबर लेना—काका की और उस ऐतिहासिक कुर्सी की तो दूर, दूरभाष वाला दिया गया तीन-चार नम्बर भी शायद ही कामयाब हो। भूले-भटके कभी लग भी गया,तो न लगने जैसा ही। काका के मन में उस कुर्सी की ऐतिहासिकता की उत्सुकता अभी भी बरकरार है—किस लकड़ी की है...किसने बनायी...कब बनाई...क्यों बनाई...क्या खासियत है....? और हाँ,चुँकि अन्य लोग भी जानते हैं कि कुर्सिया उन्हीं के पास है,इसलिए गाहे-बगाहे हालचाल ले लेते हैं—काका का कम,कुर्सीया का ज्यादा।
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