कंजूस ( हास्य सृजन )
रहते थे दो मित्र एक नगर में ,दोनों घी के फुटकर व्यापारी ।
दिल का दर्द दोनों कहते सुनते ,
नित्य कथाएं बताते थे सारी ।।
एक था भारी कंजूस उनमें ,
जीवन की सच्ची बताई कहानी ।
एक तो रखता हूं बाट कम मैं ,
ठंडी मारना भी बताया जुबानी ।।
दूसरा था मक्खीचूस भयंकर ,
कहने की आई अब उनकी बारी ।
फिर तो मैं तुमसे पीछे नहीं हूं ,
मैंने भी कभी हिम्मत नहीं हारी ।।
गिर गई घी में थी एक मक्खी ,
हो गई शीघ्र ही राम को प्यारी ।
मैं भी निकाला घी से उसको ,
चूसा घी संग उसकी रस सारी ।।
हैं तो जैसे को वैसे ही मिलते ,
कुसंग को मिल जाते कुसंग ।
दुर्जन संग सज्जन नहीं मिलते ,
मिलते केवल भुजंग संग भुजंग।।
पूर्णतः मौलिक एवं
अप्रकाशित रचना
अरुण दिव्यांश
डुमरी अड्डा
छपरा ( सारण )बिहार ।
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