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झारखण्ड के टांगीनाथ धाम में है परशुराम का फरसा-अशोक “प्रवृद्ध”

झारखण्ड के टांगीनाथ धाम में है परशुराम का फरसा-अशोक “प्रवृद्ध”

अष्टचिरंजीवियों में शामिल भगवान विष्णु के आवेशावतार परशुराम कृतयुग अर्थात सतयुग, त्रेतायुग और फिर द्वापर में भी जीवित थे, अर्थात उपस्थित थे। और ऐसी मान्यता है कि इस कलयुग में भी परशुराम जीवित हैं। परशुराम अमर हैं, और वर्तमान समय में भी कहीं तपस्या में लीन हैं। रामायण, महाभारत और पौराणिक ग्रन्थों के अध्ययन से ऐसा आभाष होता है कि परशुराम कई युगों तक विभिन्न युग परिवर्तनकारी घटनाओं के साक्षी व स्वयं कारण अथवा कारक बने। परशुराम का नाम दो शब्दों के योग से बना है- परशु और राम। परशु का अर्थ है –कुल्हाड़ी। इस प्रकार उनके नाम का अर्थ है- कुल्हाड़ी के साथ राम। ऋषिपुत्र होने के साथ वे एक कुशल योद्धा थे। उनका प्रमुख शस्त्र कुल्हाड़ी था, जिसे फरसा या परशु भी कहा जाता है। भगवान शिव से उन्हें देवताओं के सभी शत्रुओं, दैत्यों, राक्षसों और दानवों के संहार करने में सक्षमता का वरदान प्राप्त हुआ था। विष्णु के दशावतारों में षष्ठम अवतार भगवान परशुराम का फरसा आकार-प्रकार और देखने में अतिभयानक था। ऐसा कि देखने वाले की आत्मा तक थर्रा उठे, अर्थात रूह तक कांप जाये। आज भी भगवान परशुराम का वह फरसा पृथ्वी लोक में मौज़ूद है। कहा जाता है कि उनका फरसा झारखण्ड प्रान्त के गुमला जिले के टांगीनाथ धाम में गड़ा हुआ है। कथा के अनुसार त्रेतायुग में रामावतार के समय परशुराम ने भगवान श्रीराम के द्वारा जनकपुर में आयोजित सीता माता के स्वयंवर में शिव के पिनाक धनुष के भंग होने पर आकाश मार्ग द्वारा मिथिलापुरी पहुँच कर प्रथम तो स्वयं को विश्व-विदित क्षत्रिय कुल द्रोही बताते हुए बहुत भाँति आँख दिखाये और क्रोधित हो कहा- सुनो राम ! जिसने शिव धनुष को तोड़ा, वह सहसबाहु के समान मेरा शत्रु है। अत्यंत क्रोधित परशुराम की लक्ष्मण से लंबी बहस हुई। बहस के बीच में ही जब परशुराम को पता चला कि भगवान श्रीराम स्वयं नारायण ही हैं, तो उन्हें बड़ी आत्मग्लानि हुई। अपनी शक्ति का संशय मिटते ही उन्होंने वैष्णव धनुष श्रीराम को सौंप दिया और क्षमा याचना करते हुए अज्ञानता में बहुत अनुचित बात कहने के लिए दोनों भाइयों से क्षमा मांगकर पश्चाताप करने के लिए तपस्या करने की इच्छा व्यक्त करने लगे। तब दशरथनन्दन श्रीराम ने जमदग्नि कुमार परशुराम का पूजन किया और परशुराम ने राम की परिक्रमा कर आश्रम की ओर प्रस्थान किया। जाते- जाते भी उन्होंने श्रीराम से उनके भक्तों का सतत सान्निध्य एवं चरणारविन्दों के प्रति सुदृढ भक्ति की ही याचना की। शर्म के मारे परशुराम वहां से निकल गए और पश्चाताप करने के लिए घने जंगलों के बीच एक पर्वत श्रृंखला में आ गए। और भगवान शिव की स्थापना कर आराधना करने लगे। बगल में ही उन्होंने अपना अस्त्र परशु अर्थात फरसे को गाड़ दिया। परशुराम ने जिस स्थान पर फरसे को गाड़ कर भगवान शिव की आराधना की, वह झारखण्ड प्रान्त के गुमला जिले के डुमरी प्रखण्ड अंतर्गत मझगांव ग्राम के लुचुतपाट पहाड़ी में स्थित है। आज भी मझगांव की पहाडी में एक स्थान पर एक फरसा गड़ा हुआ है, जिसे श्रद्धालु भक्त परशुराम का परशु मान पूजते और मनोकामना पूर्ति हेतु प्रार्थना करते हैं। बगल में ही हाल के वर्षों में निर्मित एक शिवमंदिर और देवी मंडप तथा खुले आसमान में यत्र- तत्र बिखरे बिखरे पड़े देवी- देवताओं की अनेक मूर्तियाँ हैं। झारखण्ड में फरसा को टांगी कहा जाता है, इसलिए झारखण्ड के गुमला जिले के डुमरी प्रखण्ड के मझगांव में अवस्थित इस स्थान का नाम टांगीनाथ धाम पड़ गया। टांगीनाथ धाम में आज भी भगवान परशुराम के पद चिह्न व अन्य निशान मौजूद हैं।



मान्यता है कि झारखण्ड प्रान्त के गुमला जिले के इस स्थान पर भगवान परशुराम ने लंबा समय शिवाराधना में बिताया। यह क्षेत्र शिवभक्ति के लिए प्राचीन काल से ही प्रसिद्ध रहा है, और टांगीनाथ धाम, हनुमान की जन्म स्थली के रूप में प्रसिद्ध आंजन धाम, गुमला, सिसई, घाघरा प्रखण्डों के सीमा क्षेत्र में अवस्थित सिसई प्रखण्ड के मुरुनगुर चरण नाथ शिव मन्दिर धाम, दक्षिण कोयल के अष्टकमल नाथ महादेव, डोईसा नगर तक प्रशस्त चौबीस कोस के चतुर्दिक क्षेत्र के मन्दिरों- देवालयों के साथ ही पहाड़- पर्वत, नदी –नाले, बाग़- बगीचा, कुएं, तालाब और टांड जमीन सर्वत्र शिव लिंगों की भरमार है, जहाँ वर्तमान में भी लोग शिवार्चना करते देखे जाते हैं। परशुराम भी महान शिवभक्त थे, इसलिए उन्होंने इस वन क्षेत्र से घिरे मझगांव की एकांत पहाडी स्थल को तपस्या के लिए चुनी और अपने परशु को गाड़ वहीँ बैठ वर्षों तक तपस्या की। टांगीनाथ धाम का पश्चिम भाग छत्तीसगढ़ राज्य के जशपुर जिला व सरगुजा से सटा हुआ है, वहीं उत्तरी भाग पलामू के लातेहार जिले व नेतरहाट की तराई से घिरा हुआ है। सखुवा के हरे भरे वनों से आच्छादित छोटानागपुर के पठार का यह उच्चतम भाग है। जमीन में 27 फीट धंसे इस फरसे की ऊपरी आकृति कुछ त्रिशूल से मिलती-जुलती होने के कारण स्थानीय लोग इसे त्रिशूल भी कहते हैं। सबसे आश्चर्य की बात कि जमीन पर सहस्त्राब्दियों से धंसे होने के बाद भी इसमें कभी जंग नहीं लगता। खुले आसमान के नीचे धूप, छांव, बरसात, ठंड का कोई प्रभाव इस त्रिशूल पर नहीं पड़ता है।



मान्यता है कि टांगीनाथ धाम में साक्षात भगवान शिव निवास करते हैं। सावन व महाशिवरात्रि के अवसरों पर यहां हजारों की संख्या में शिवभक्त आते हैं, और शिव की पूजा- अर्चा कर मनोवांछित फल की कामना करते हैं। लौकिक मान्यता है कि शिव इस क्षेत्र में निवास करने वाले प्राचीन जातियों से संबंधित देवता थे। सूर्यपुत्र शनिदेव के किसी अपराध के लिए शिव ने शनिदेव पर त्रिशूल फेंक कर वार किया। शिव का फेंका गया वह त्रिशूल गुमला जिले के डुमरी प्रखंड के मझगांव की पहाड़ी की चोटी पर आ धंसा, लेकिन उसका अग्र भाग जमीन के ऊपर रह गया। यह त्रिशूल जमीन के नीचे कितना गड़ा है, यह कोई नहीं जानता। 27 फीट एक अनुमान ही है। एक अन्य कथा के अनुसार किसी बात पर रुष्ट अपने पिता जन्मदग्नि के आदेश का पालन करते हुए परशुराम ने अपने परशु अर्थात फरसा से अपनी माँ रेणुका का वध कर दिया था। जब प्रसन्न पिता ने उनसे वर माँगने को कहा तो उन्होंने अपनी माँ का ही पुनर्जीवन माँग कर माँ को पुनः प्राप्त कर लिया। मान्यता है कि माँ की हत्या से लज्जित महसूस कर रहे परशुराम वहां से चल पड़े, और घने जंगल के मध्य आकर अपने अस्त्र परशु को गाड़ दिया और शिव मूर्ति की स्थापना कर शिवोपासना में लीन हो गए।

टांगीनाथ धाम में कई पुरातात्विक व ऐतिहासिक धरोहर हैं। यहां की कलाकृतियां, नक्काशियां और कई स्थल व स्रोत पौराणिक भारत की गोद में सैर कराते प्रतीत होते हैं। इन स्थलों व स्रोतों का अध्ययन व पहचान कर विकसित किये जाने से गुमला जिले को धार्मिक- आध्यात्मिक व पर्यटक क्षेत्र में एक अलग पहचान मिल सकती है। सन 1989 ईस्वी में पुरातत्व विभाग ने टांगीनाथ धाम के रहस्यों से पर्दा हटाने के लिए अध्ययन किया था। यहां जमीन की भी खुदाई की गई थी। उस समय भारी मात्रा में सोने व चांदी के आभूषण सहित कई बहुमूल्य वस्तुएं मिली थीं। हीरा जड़ा मुकुट, चांदी का अर्द्ध गोलाकार सिक्का, सोना का कड़ा, सोने की कान की बाली, काला तिल व चावल से भरा तांबा का टिफिन मिला था। बताया जाता है कि खुदाई में मिले सामान आज भी डुमरी थाना के मालखाना में रखे हुए हैं। लेकिन कतिपय कारणों से खुदाई पर रोक लगा दिया गया। इसके बाद टांगीनाथ धाम के पुरातात्विक धरोहर को खंगालने के लिए आज तक किसी ने पहल नहीं की। जबकि डुमरी प्रखण्ड अंतर्गत टांगरडीह निवासी सुदर्शन भगत इस क्षेत्र के कई बार संसद रह चुके हैं, और मोदी सरकार के पिछले कार्यकाल में केन्द्रीय मंत्री के पद को सुशोभित कर चुके हैं। डुमरी प्रखण्ड के कटरा निवासी शिवशंकर भगत झारखण्ड विधानसभा के विधायक रह चुके हैं, लेकिन टांगीनाथ के दिन आज तक नहीं बहुरे। टांगीनाथ आज भी विकास का बाट जोह रहा है। यहाँ तक आवाजाही का मार्ग खस्ताहाल में है। टांगीनाथ धाम में विश्रामागार नहीं है। सालों भर भक्तों, पर्यटकों की आवाजाही लगी रहती है, लेकिन वहां न तो ठहरने का स्थान है, और न ही खाने –पीने के लिए होटल, रेस्टोरेंट। हाँ, स्थानीय सरकारी पदाधिकारियों के सैर- सपाटे के लिए आने पर उनके ठहरने के लिए एक शौचालय, पानी आदि सुविधाओं से संयुक्त सामुदायिक भवन बना हुआ है। टांगीनाथ धाम में यत्र तत्र सैकंडों की संख्या में शिवलिंग है। मान्यता है कि इस मन्दिर को स्वयं विश्वकर्मा भगवान ने टांगीनाथ धाम के रूप में रचना की थी। यह खंडहर में तब्दील हो गया था, लेकिन कुछ वर्ष पूर्व स्थानीय विश्व हिन्दू परिषद के कार्यकर्ताओं और टांगीनाथ धाम विकास समिति से सम्बद्ध सदस्य संजय साहु “जैरागी”, उदय गुप्ता, गोविन्द साय, प्रह्लाद केसरी “फागु” आदि के अथक परिश्रम से वहां पर स्थित शिवमंदिर का पुनर्निर्माण कराया गया है, जहाँ स्थापित शिवलिंग की भक्तजन पूजार्चा करते हैं। सरकारी योजनाओं से भी मन्दिर परिसर में कुछ निर्माण कराये गए हैं, फिर भो मंदिर के समीप ही कई अन्य अधूरे निर्माण अपने पूर्ण होने की बाट जोहते नजर आते हैं।
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