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चलो तोड़ते हैं

चलो तोड़ते हैं

---: भारतका एक ब्राह्मण.
संजय कुमार मिश्र 'अणु'
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पहले के जमाने में
होती थी
मिट्टी की दीवार
जो समय कुसमय पर
गीर जाती थी
या फिर गिरा दी जाती थी
बांटने को प्यार
पर समय के साथ
होता चला गया बदलाव
बढ़ने लगा अविश्वास
और पनपने लगा घाव
बदला भाव स्वभाव
और व्यवहार
उठने लगी पक्की दीवार
बांटने को परिवार
बढ़ाने को द्वेष
करने को आर-पार
लोग आज भी कहते हैं
पहले दीवार बोलती थी
होता था कुछ कुछ मनमुटाव
पर इधर-उधर प्रीति डोलती थी
करने को विस्तार
और भी लोग करते हैं बखान
पहले होते थे दीवार के कान
जो सुनता था सब
क्या हो रहा है इधर या उधर
है कोई गमगीन या लिए मुस्कान
या फिर कौन किससे खाये खार
पर जबसे दीवारें हुई है पक्की
हो गया है सबका मन शक्की
अब नहीं सुनता है कोई कुछ
और न देखता है लगा टकटकी
होकर लाचार
मन को मार
यदि लानी है आंगन में बहारें।
चलो तोड़ते हैं पक्की दीवारें।।
----------------------------------------वलिदाद, अरवल (बिहार)८०४४०२
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