मुखौटों की दुनिया
मुखौटों की दुनिया मे, रहता है आदमी,
मुखौटों पर मुखौटें, लगाता है आदमी।
बार बार बदलकर, देखता है मुखौटा,
फिर नया मुखौटा, लगाता है आदमी।
मुखौटों के खेल मे इतना, माहिर है आदमी,
गिरगिट को भी रंग, दिखाता है आदमी।
शैतान भी लगाकर, इंसानियत का मुखौटा,
आदमी को छलने को, तैयार है आदमी।
मजहब के ठेकेदार भी, अब लगाते है मुखौटे
देते हैं पैगाम, बस मरता है आदमी।
लगाने लगे मुखौटे, जब देश के नेता,
मुखौटों के जाल मे, फंस गया आदमी।
जाति- धर्म का जब, लगाया मुखौटा,
आदमी का दुश्मन, बन गया है आदमी।
देखकर नेताओं का, मुखौटा अनोखा,
हैरान और परेशान, रह गया है आदमी।
एक रोज लगा लिया, जानवर का मुखौटा,
पशुओं का सारा चारा खा गया है आदमी।
कभी भूल जाता है, जब बदलना मुखौटा,
शै और मात मे, फंस जाता है आदमी।
मुखौटों के खेल मे इतना, उलझ गया आदमी
खुद की ही पहचान, भूल गया है आदमी।
मुखौटे भी शर्माने लगे, यह रंग देखकर,
बेशर्मी की हदें, पार कर गया है आदमी।
डॉ अ कीर्तिवर्धन
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