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देशहित

देशहित

सत्तर वर्षों की विरासत
तजुर्बों का हिसाब
चेहरे पर चेहरा
यही तो देखा
जन्म से आज तक
गरीबी हटाओ
अथवा
गरीब
यह प्रश्न मंथन करता रहा
जीवन भर।
रंग बदलते चेहरे
अथवा
पल पल बदलते मुखौटे।
आरोप लगाने का
अन्तहीन सिलसिला
विरोधियों को
मौत के घाट उतारना
सत्ता की खातिर
दुश्मनों को प्रश्रय
विरोध के स्वर
खामोश करना
यही तो थी विरासत
इस मुल्क की।
क्यों नाहक ही
नाराज होते हो
समय ने जरा सी
करवट ही तो ली है
फर्क है इसमें भी
पहले निज स्वार्थ थे
अब
देशहित सर्वोपरि।

अ कीर्तिवर्धन
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