मंगल पाण्डेय
ढा रहे थे कहर जब गोरे ,भारत माता बनी दासी थी ।
विवश थीं तब भारत माता ,
विश्व के लिए उपहासी थी ।।
जकड़ी पड़ीं भारत माता ,
स्वतंत्रता की वह प्यासी थी ।
होते रहे थे संघर्ष ये निरंतर ,
फिर भी मां बहुत उदासी थी ।।
देख रवैया दूजा दल बना था ,
जिसका मां ही अभिलाषी थी ।
टूट पड़े थे गोरों पर जब वे ,
मंगल को मिली तब फांसी दी ।।
जा रहा आज है एक मंगल ,
भारती मां तेरा मंगल होगा ।
भारत तेरे तो हजारों मंगल ,
नहीं तेरा अब अमंगल होगा ।।
भारत तेरे दिन अब बहुरेंगे ,
गोरों के दिन अब दुर्दिन होंगे ।
जाना पड़ेगा उन्हें अब वापस ,
सत्ता से गोरे अब हीन होंगे ।।
मातृभूमि हेतु झूले तू फांसी ,
आज भारत बहुत रुआंसी है ।
भारत का सदा नमन तुम्हें है ,
तेरे जैसों का देश अभिलाषी है ।।
पूर्णतः मौलिक एवं
अप्रकाशित रचना
अरुण दिव्यांश
डुमरी अड्डा
छपरा ( सारण )बिहार ।
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