घट रहा है परिवार का दायरा और परिवार का सुख
जितेन्द्र कुमार सिन्हा
आज करीब घर के प्रत्येक मुखिया के ऊपर दबाव खतम हो गया है। इसका कारण है बिना अनुभव जुटाये ठीक एक पीढ़ी पहले मुखिया का कुर्सी हासिल कर लेना। इसी का परिणाम है की घर के मुखिया का अपने ही बच्चों से बात करना दुष्कर हो गया है। आज एक परिवार की स्थिति का आकलन किया जाय तो बहुत कुछ आईने की तरह साफ हो जायेगा और समझ में आने लगेगा।
आज जब परिवार छोटे हो रहे है तो व्यस्तता बढ़ रही है, सुविधाएँ बढ़ रही है लेकिन सुख नहीं बढ़ रहा है। क्योंकि सुख बनाये रखने और सुख बाँटने के लिए परिवार चाहिए। यह सही है की व्यक्ति को समय के अनुसार बदलना चाहिए लेकिन यह भी सही है कि व्यक्ति का आधार नहीं बदलना चाहिए। इसलिए तो यह कहावत चरितार्थ है कि “बाप यदि घोड़ा पर नहीं बैठा है तो बेटा को घोड़ा पर जरुर बैठना चाहिए”। हमारे लिए जो उपयोगी है, उसे तो हमें सम्भालकर रखना ही चाहिए। आज हर परिवार की यही एक समस्या है बच्चों को हमारे मूल्यों से कैसे जोड़ कर रखें।
शहरों में परिवार का एक ही अर्थ रह गया है पति, पत्नी और उनके बच्चे। इनमें पत्नी केन्द्र बिन्दु रहती है और शेष उनके चारो ओर। शाम को किसी के घर चले जाइए पत्नी खाना बनाते हुए और शेष सदस्य टीवी के सामने बैठे हुए या मोबाईल में लगे हुए मिलेंगे। आज का जीवन परिवेश ज से बदल रहा है, हमारी संस्कृति और सभ्यता तेजी से पीछे छूटता जा रहा है।
पारिवारिक नियंत्रण का काम भी अब पत्नी को लेना पड़ रहा है। बच्चे से बात करना अब आसान नहीं है क्योंकि बच्चों के प्रश्न न जाने किस दिशा से आते है, उनको गलत उत्तर देकर भ्रमित भी नहीं किया जा सकता है। परिणाम यह आ रहा है कि सबसे भली चुप चाप रह जायें या बच्चों से गंभीर विषयों पर चर्चा ही नहीं करें।
मुखिया को बच्चों से बात करना अब आसान कामनहीं रह गया है। बदलता परिवेश में हमारी संस्कृति और सभ्यता बहुत कुछ पीछे छूटता जा रहा है। क्या कुछ पीछे छूट गया इसका आभास भी नहीं हो पा रहा है। हमारे साथ क्या रहना चाहिए था इसका भी तनिक चिंता नहीं है और अगली पीढ़ी को क्या देकर जाना है इसका भी बोध नहीं है। ऐसी स्थिति में यह प्रश्न उठना लाजमी है कि हमारे जीने का उद्देश्य क्या है?
बच्चों के विषय पर चर्चा न करना और उसे सही जानकारी से अवगत नहीं करना, यह परिस्थिति किसी परिवार के लिए शुभ संकेत नहीं हो सकता है। क्योंकि ऐसी स्थिति में बच्चे अपनी मर्जी से कुछ भी कर सकता है और मुखिया मूक दर्शक बना रह सकता है। इसी का परिणाम हो रहा है कि बच्चों में पनप रही कम उम्र में अश्लीलता, बड़े छोटों आदर की कमी, किस व्यक्ति के सामने क्या बोलना चाहिए उसकी अज्ञानता, बड़ों का डर, समाज में लोक लज्जा की धज्जियाँ उड़ रही है। अब तो विकृति ऐसी भी डेभलप हो रहा है कि कम उम्र में बच्चे आत्म हत्या भी करने लगे है।
परिवार सुख के लिए यह आवश्यक है कि समेकित परिवार में पारिवारिक जिन्दगी की गाड़ी की शुरुआत कर परिपक्व होने तक एक साथ रहें ताकि गृहस्थी की योजना, परिजनों के प्रति दायित्व बोध, परिवार और समाज के प्रति आदर भाव पैदा हो सके। स्त्री ही बच्चों में शिक्षक की भूमिका में ज्ञान की गंगा मस्तिष्क पटल पर अवतरित करती है। वहीं परिवार अपनी पीढ़ी के अनेक संस्कार बटोर कर नई पीढ़ी तक पहुँचाती है।
आज परिवार जब छोटे हो रहे है, व्यस्तता बढ़ रही है, सुविधाएँ बढ़ रही है लेकिन सुख नहीं बढ़ रहा है, इसके लिए परिवार का होना जरुरी है। जबकि आज हर व्यक्ति अपने आप में एक स्वतंत्र इकाई बनता जा रहा है। घर के कार्य कालापों में रुचि नहीं है, अपनी पीढ़ी की पहचान मिटाकर अपना नया पहचान बनाने कि दौर में लगे है। परिवार इस दिशा में मदद ही करता है, अपनी खट्टी मीठी अनुभवों के अनुसार। ऐसे भी सोचना चाहिए कि उम्र के अनुसार परिवार के पास सदबुद्धि होता है जिसका लाभ लेकर ही आगे बढ़े।
व्यक्ति स्वयं को घर में समेटता जा रहा है। सामाजिक गतिविधियों में अब उसकी रुचि नहीं रहती है। अपने दो चार मित्रों के बीच जीना चाहता है। काम के बाद अपने घर में आ कर बंद हो जाता है। पूरा परिवार चारदीवारी में सिमट कर जीने लगा है। यह विकास का मार्ग नहीं है। इसको रोकना होगा। लेकिन यह शक्ति पुरुष में नहीं होता है, यह स्त्री में होता है क्योंकि जीवन के मायाजाल को स्त्री ही समझती है। स्त्री के पास साहस, धैर्य और दक्षता होती है, इसीलिए कहा गया है कि स्त्री घर सम्भाल सकती है तो बिगाड़ भी सकती है और जो स्त्री चका चौंध की दुनियाँ में रहेगी वे सिर्फ बिगाड़ सकती है बना नहीं सकती है। बनाने के लिए गृहस्थ जीवन आवश्यक होता है।
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