बचपन - एक सुनहरा दौर
जीवन का विशिष्ट जंग ,
कब कहां किसे ठौर था ।
जीवन का अलबेला मौसम ,
बचपन एक सुनहरा दौर था ।।
सारे जहां का सुख मिलता ,
मां के हाथों मिलता कौर था ।
पिता भी सारा प्यार उड़ेलते ,
खेलाता घुमाता और और था ।।
जब बचपन यह चलना सीखा ,
मेरे पीछे बहुत ही पहरे हुए ।
जब हो जाता नेत्रों से ओझल ,
खोजबीन बहुत ही गहरे हुए ।।
उससे जब ऊपर को मैं उठा ,
मित्र संहतिया भी अनेक हुए ।
जाति धर्म से भी दूर रहकर ,
मन मस्तिष्क भी तब नेक हुए ।।
इससे भी जब मैं ऊपर उठा ,
मन भी धीरे धीरे जगने लगा ।
हुआ जब संगति का असर ,
मन भी अच्छा बुरा माने लगा ।।
पूर्णतः मौलिक एवं
अप्रकाशित रचना
अरुण दिव्यांश
डुमरी अड्डा
छपरा ( सारण )
बिहार ।हमारे खबरों को शेयर करना न भूलें|
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