कसौटी सुख - दुःख की
सुख में हम वौराय रहत, दुःख में करते हाय हायसुमिरन करते हरि अगर,सुख-दुख समदर्शी हो जाय
दुःख भी एक कसौटी है,जिस पर मानवता परखी जाती है
सोना शुद्ध बनाने को, विकराल अग्नि तपस दी जाती है
मरी हुई खालों की सांसों में, ताक़त इतनी होती है
लोहा कठोर को , पानी पानी कर देती है
हम जिंदा सांसों के, शरीर बुलंद हैं
तूफानों की कर सकते, गति कुंद हैं
दुःख से मत, घबराओ साथी
दुःख जाता है तो, सुख आता साथी
सुख- दुःख, दुःख- सुख, जीवन चक्र है साथी
झंझावात-संकट आयें कितने ही!
हस्ती हमारी मिटा सकते नहीं, वे साथी
रोते रोते हंसना-हंसते हंसते रोना,कला है भारी
जो इस कला को सीखा,हो जाती उसकी गति न्यारी
यह भी प्रकृति सुरक्षा का,सृष्टि संतुलन है
वह शुद्धता का अनुलोमन करती, त्याज्य का करती विलोमन है
मित्रो जग है निशा - उषा का आंगन
विरह - मिलन का विचलन - आलिंगन
साहस संयम धैर्य न छोड़ो,हो कितना भी सर पर भार
कर्म कर्तव्य अरु श्री हरि मत छोड़िए,हो जायेगा बेड़ा पार
जय श्री हरि
चंद्रप्रकाश गुप्त "चंद्र"
(ओज कवि एवं राष्ट्रवादी चिंतक) अहमदाबाद, गुजरात
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