ठगाते ठगाते कोई कंगाल हो गया ,
ठगते ठगते कोई मालामाल हो गया ।क्या बताऊं तुझे मेरे अज़ीज़ दोस्तों ,
जिंदगी का बहुत बुरा हाल हो गया ।।
कमाते हुए भले चंगे साल हो गया ,
जहां बैठता टूटता वही डाल हो गया ।
चला तो था मैं साहित्य ही गढ़ने ,
ह्वाट्सएप ही जी का जंजाल हो गया ।।
गल गए मेरे मांस हड्डी पसलियां ,
जिंदा केवल मेरा ये खाल हो गया ।
चला था मैं भी सुंदर काव्य गढ़ने ,
मेरा काव्य ही तो मेरा काल हो गया ।।
कहीं सदस्यता प्रकाशन के पैसे ,
कमानेवालों का एक ढाल हो गया ।
चल तो रहा था मैं भी जैसे ही तैसे ,
कमानेवाला कमाकर निहाल हो गया ।।
चला तो था सबको सहयोग करने ,
लूटने वालों का बड़ा चाल हो गया ।
ठग से लगाने का अंत नहीं मेरा ,
बड़ा बनते बनते मैं तो बाल हो गया ।।
पूर्णतः मौलिक एवं
अप्रकाशित रचना
अरुण दिव्यांश
डुमरी अड्डा
छपरा ( सारण )बिहार ।
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