पथिक
मैं अजनबी पथ पे चलनेवाला ,मैं पथिक कहलाता अति चिर ।
पथ क्यों न हों ये दुर्गम कंटीले ,
वह पथ चलने वाला राहगीर ।।
राह में क्यों न कांटे ही बिछे हों ,
चाहे पथ में मिलें राक्षस अनेक ।
दुर्गम मार्ग को सरल मैं बनाता ,
करता हुआ यह कार्य मैं नेक ।।
राहों से चुन चुन कांटे मैं हटाता ,
फिर आगे आगे बढ़ता जाता हूं ।
पथगीरों को सुंदर यह पर मिले ,
दुर्गम पथ को सुगम बनाता हूं ।।
बहा दे मार्ग जो हिन्द संस्कृति ,
गंगा सदृश पावन पवित्र नीर हूं ।
दुर्गम पथ का मैं दुर्बल पथिक ,
रहनेवाला नहीं कभी मैं थीर हूं ।।
पूर्णतः मौलिक एवं
अप्रकाशित रचना
अरुण दिव्यांश
डुमरी अड्डा
छपरा ( सारण )बिहार ।
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