पछुआ की क्रोधित साँसों से
सड़कें मूक हुईं।।
धरती ज्वर से पीड़ित लगतीकोई मापे ताप,
लगता भूल किसे ने की हो
इसे मिल गया श्राप।
काँप रही हैं दशो दिशाएँ
कैसे चूक हूई।।
जल का स्रोत पताल गया
छायाएँ हैं बेचैन
कोटर में दुबकी गौरैया
खोल न पाती नैन।।
शीतलता की खोज घाम को
आहें हूक हुईं।।
प्याऊ का घिड़सिड़ तो गीला
ऊँघ रहा रखवार,
बहरी चार दिवारी संपुट
बाँच रही अखवार।।
निर्दयता की चादर ओढे
निष्कृप लूक हुई।।
*********रामकृष्ण
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