आधुनिक गाँव
गाँव में भी अब कहाँ, वह शुकून बाकी है,आधुनिकता की गाँव में, चल रही आँधी है।
खत्म हो गये पनघट, नीम पीपल की छाँव,
सिमट गयी मानवता, बड़ा हो गया गाँधी है।
नहीं दिखते कच्चे घर, जिसमें रिश्ते पलते,
दीवार खड़ी है आँगन, खेती भी न साँझी है।
अम्मा भी बुढ़िया हो गयी, पड़ी हुई चौबारे में,
बूढ़े बाबा के हिस्से में, आयी चौकीदारी है।
छोटा राजू शाम ढले ही, दारू पीकर आता है,
बडकों से फिर झगड़ा करता, मुद्दा खेती बाड़ी है।
नहीं बचे वो फल और सब्जी, नहीं पशु घर पलते,
बड़की भाभी कह रही, गोबर से बदबू आती है।
पगडंडी भी सडक हो गयी, बैलगाड़ी कहीं खो गयी,
सुबह शाम पशुओं की आमद, नहीं कहीं दिख पाती है।
सारा गाँव ही अपना घर था, ताऊ चाचा के रिश्ते थे,
निज घर में दीवार, संस्कार कहाँ सिखा पाती है।
अनन्त कीर्ति वर्द्धन
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