कितना अच्छा होता
वेद प्रकाश तिवारी
तुमने मुझे देखा
साफ- सुथरे परिधानों में,
तुम्हारी ईर्ष्या जगी
तुमने मुझे मेरे घर को सजाते हुए देखा
तुम द्वेष से भर गए
तुमने मेरे बच्चों को स्कूल जाते देखा
उन्हें अच्छे संस्कारों में पलते देखा
तुम्हारे मन में चलने लगा षड्यंत्र
तुमने समाज में मेरा परिचय,
मेरा सम्मान देखा
तुम हुए हीनता के शिकार
और दुर्भावना से भर कर
मुझसे करने लगे विश्वासघात
बन गये मेरे शत्रु अकारण
पर मैं अब भी तुम्हारे आचरण से
दुखी नहीं हूं
बल्कि अतिरिक्त इच्छाशक्ति से भर गया हूं
तुम नहीं जानते
तुमने जब- जब मेरे मार्ग में
खड़े किए व्यवधान
मुझे उलझन में देख कर
तुम्हारे चेहरे पर
जब- जब आई कुटिल मुस्कान
तब- तब मेरे भीतर कुछ और बेहतर करने की
प्रेरणा का होने लगा सूत्रपात
इसलिए जो भी उपलब्धि आज है मेरे पास
उसमें तुम्हारा भी है योगदान
मैं अपने श्रेष्ठ जनों के
आशीर्वाद के साथ साथ
तुम्हारी शत्रुता को भी
करता हूं शिरोधार्य
बस एक जरा सा अफसोस
रहेगा उम्र भर यह मुझे
उम्र के आखिरी पड़ाव पर भी
जो तुम जला रहे हो खुद को
नफरत की आग में
कर रहे हो
भ्रातृ प्रेम को कलंकित
काश ! कितना अच्छा होता
कि तुम भी हो जाते निर्मल
तो बदल जाता तुम्हारा कल।--
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