जब भी देखा थोथे को ही, ज्यादा बजते देखा,
जब तक भरा घडा अधूरा, खूब छलकते देखा।
थी जिसकी औकात नही, कौडी में बिक जाने की,
खरीदार की क्षमताओं पर, सवाल उठाते देखा।
घर के अन्दर बकरी सा, जो मिमियाया करते,
सडक, चौराहों-महफिल में, उन्हें दहाडते देखा।
जब भी हुआ शहर में दंगा या सरहद पर हमला,
चौखट से जो बाहर न निकले, आरोप लगाते देखा।
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