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जिम्मेवार बचपन

जिम्मेवार बचपन

दोपहर की धूप कड़ी थी
उसमें एक पेड़ के नीचे
खीरे की एक रेहड़ी खड़ी थी
चला रहा था एक बचपन
ढोता कांधे पर पूरा जीवन
पानी की बाल्टी लगभग खाली
ग्राहक है नदारद सूनी आंखें
सूनी सड़क पर खोजें किसको
शाम आने में वक्त पड़ा है
माँ खाना भी नहीं है लाई
तभी किसी ने कीमत पूछी
आंखों में आशाएं झलकीं
कीमत थोड़ी कम थी मगर
बिक गयी है कुछ संतोष यही था
शाम तक निपटा ही दूंगा
छोटी आंखों के सपने में दम था
पूछा किसी ने ये क्या करते हो
स्कूल छोड़ रेड़ी धरते हो
बचपन बोला मैं भी ये चाहूं
पर अगन पेट की कैसे बुझाऊँ
नहीं अकेला मैं परिवार बड़ा है
सबको लेकर ये रेहड़ी धरा है
शाम तक कुछ ला पाऊंगा
सबको रोटी न दे पाऊंगा
पर कुछ तो कर ही रहा हूँ
यही आशा जीवन का मान है
मानव के संघर्ष का भान है
हाँ बचपन को स्कूल चाहिए
कपड़े किताबें खेल चाहिए
पर पेट की अगन है सबसे बड़ी
उसके आगे कोई नहीं
जिस ये पहचाना जाएगा
भारत विश्वगुरु कहलायेगा-
मनोज मिश्र
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