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लज्जा, शर्म , हया

लज्जा, शर्म , हया

शरारत जब आंखें करती हैं ,
तब शर्म से नजरें शर्माती हैं ।
बनती हैं बेशर्म जब ये आंखें ,
तब नजरें हया दिखाती हैं ।।
बन जाती हैं बेशर्म ये आंखें ,
अपने सच्चे प्रेमी को देखकर ।
ढूंढ़ लेती निज प्रेमी भी आंखें ,
चाल ढाल हाल ही परेखकर ।।
शरारत करता जब तन कोई ,
आंखें तब धरती को छूती हैं ।
करती अपराध क़ुबूल आंखें ,
भूल से ऊपर नहीं उठती हैं ।।
अपराधी तो होता मस्तिष्क ,
भुगतना तन को ही पड़ता है ।
अपराध क़ुबूल करती हैं आंखें ,
पछताना तो मन को पड़ता है ।।
पूर्णतः मौलिक एवं
अप्रकाशित रचना
अरुण दिव्यांश
डुमरी अड्डा
छपरा ( सारण )बिहार ।
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