Advertisment1

यह एक धर्मिक और राष्ट्रवादी पत्रिका है जो पाठको के आपसी सहयोग के द्वारा प्रकाशित किया जाता है अपना सहयोग हमारे इस खाते में जमा करने का कष्ट करें | आप का छोटा सहयोग भी हमारे लिए लाखों के बराबर होगा |

गुरुपूर्णिमा (व्यास पूजन)

गुरुपूर्णिमा (व्यास पूजन)

प्रस्तावना : माया के भवसागर से शिष्य को एवं भक्तों को बाहर निकालनेवाले, उनसे आवश्यक साधना करवा कर लेनेवाले एवं कठिन समय में उनको अत्यंत निकटता एवं निरपेक्ष प्रेम से सहारा देकर संकट मुक्त करने वाले गुरु ही होते हैं । ऐसे परम पूजनीय गुरु के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने का दिन है गुरुपूर्णिमा । प्रस्तुत लेख में हम गुरु पूर्णिमा का महत्व तथा यह उत्सव मनाने की पद्धति जानेंगे । प्रत्येक वर्ष अनेक लोग एकत्रित आकर अपने संप्रदाय के अनुसार गुरु पूर्णिमा महोत्सव मनाते हैं । इस वर्ष गुरुपूर्णिमा 3 जुलाई को है । प्रस्तुत लेख से गुरुपूर्णिमा का महत्व जानकर उसके अनुसार कृति करने का प्रयास करेंगे और गुरु के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करेंगे।

गुरुपूर्णिमा मनाने की तिथि : गुरुपूर्णिमा यह उत्सव सब जगह आषाढ़ माह की पूर्णिमा को मनाया जाता है। (तमिल प्रदेश में व्यास पूजा जेष्ठ पूर्णिमा को मनाई जाती है)

गुरुपूर्णिमा मनाने का उद्देश्य : गुरु अर्थात ईश्वर का सगुण रूप ! वर्ष भर गुरु अपने भक्तों को अध्यात्म का ज्ञान देते हैं । गुरु के प्रति अनन्य भाव से कृतज्ञता व्यक्त करना, यह गुरुपूर्णिमा मनाने का उद्देश्य है ।

गुरुपूर्णिमा मनाने का महत्व : -

1) गुरुतत्व का कार्यरत होना : गुरुपूर्णिमा के शुभ दिन पर गुरुतत्व (ईश्वरीय तत्व) नित्य की अपेक्षा 1000 गुना अधिक कार्यरत होता है । इसलिए गुरुपूर्णिमा के अवसर पर की गई सेवा एवं त्याग सत् के लिए अर्पण इनका अन्य दिनों की अपेक्षा 1000 (हजार) गुना अधिक लाभ होता है। इसलिए गुरुपूर्णिमा यह गुरु कृपा (ईश्वर कृपा) प्राप्त करने की एक अनमोल संधि है ।

2) गुरु शिष्य परंपरा : यह हिंदुओं की हजारों वर्ष पुरानी चैतन्यमयी संस्कृति है । परंतु समय के प्रवाह में रज-तम प्रधान संस्कृति के प्रभाव के कारण इस महान गुरु शिष्य परंपरा की उपेक्षा हो रही है । गुरुपूर्णिमा के कारण गुरु पूजन होता है तथा गुरु शिष्य परंपरा का महत्व समाज को बता सकते हैं। संक्षेप में गुरुपूर्णिमा अर्थात गुरु शिष्य परंपरा का संरक्षण करने की सुसंधि ही है !

3) गुरुपूर्णिमा मनाने की पद्धति : शिष्य इस दिन अपने गुरु की पाद्य पूजा करते हैं एवं उनको गुरु दक्षिणा अर्पण करते हैं । इस दिन व्यास पूजा करने की प्रथा है। गुरु परंपरा में महर्षि व्यासजी को सर्वश्रेष्ठ गुरु माना गया है। सभी प्रकार के ज्ञान का उद्गम महर्षि व्यास से होता है, ऐसी भारतीयों की धारणा है। कुंभकोणम एवं श्रृंगेरी ये शंकराचार्यजी के दक्षिण भारत के प्रसिद्ध पीठ हैं । इन स्थानों पर व्यास पूजा का महोत्सव संपन्न होता है। व्यास महर्षि ये शंकराचार्य के रूप में पुनः अवतरित हुए हैं ऐसी श्रद्धालुओं की श्रद्धा है, इसलिए संन्यासी इस दिन व्यास पूजा के रूप में शंकराचार्य जी की पूजा करते हैं ।

गुरुपूजन की विधि : स्नान आदि नित्य कर्म करने के उपरांत "गुरु परंपरा सिद्धर्थम व्यास पूजनं करिष्ये " ऐसा संकल्प किया जाता है । एक धुला हुआ वस्त्र बिछाकर उस पर चंदन से पूर्व से पश्चिम की ओर तथा उत्तर से दक्षिण की ओर ऐसी 12 रेखाएं खींचते हैं । ये रेखाएं महर्षि व्यास का व्यासपीठ माना जाता है । फिर ब्रह्मा, परात्पर शक्ति, व्यास, शुुकदेव, गौडपाद, गोविंद स्वामी एवं शंकराचार्य इनका उस व्यासपीठ पर आवाहन करके उनकी षोडशोपचार पूजा की जाती है । इस दिन दीक्षा गुरु एवं माता-पिता इनकी भी पूजा करने की प्रथा है । इस तरह गुरु पूर्णिमा मनानी चाहिए ।

गुरु का महत्व : इस जन्म में छोटी-छोटी बातों के लिए प्रत्येक व्यक्ति शिक्षक, डॉक्टर, वकील आदि किसी दूसरे का मार्गदर्शन लेता है। तो जन्म मृत्यु के फेरे से मुक्ति देनेवाले गुरु का महत्व कितना होगा, इसकी कल्पना भी नहीं कर सकते । अगले सूत्रों से वह महत्व स्पष्ट होगा।

मानसिक दृष्टि से : -

1) शिष्य की उन्नति के लिए अपने अस्तित्व एवं सामर्थ्य का ज्ञान करानेवाले गुरु की ओर शिष्य का ध्यान अधिक मात्रा में केंद्रित हो सकता है ।

2) गुरु को अंतर्ज्ञान से सब कुछ समझ में आता है, इस अनुभूति के कारण शिष्य दुष्कृत्य करना टालता है।

3) शिष्य को सिखाने की अपेक्षा संत ऐसा क्यों बोलते हैं? ऐसे कुछ अभ्यासु साधकों को लगता है । इस संबंध में पूछने पर संत बोले, मुझे पकोड़े या थालीपीठ पसंद है ऐसा कहता हूं, उस कारण शिष्य घर पर थालीपीठ या पकोड़े बनाते समय मेरा नाम लेता है l

4) स्वयं की महानता या बड़प्पन के कारण शिष्य को उसकी कमियों का ज्ञान ना कराकर गुरु उसकी कमियों को दूर करके गुरु पद प्राप्त करवा देते हैं।

आध्यात्मिक दृष्टि से : -
1) गुरु के पास जाना : गुरु शिष्य को अपना स्मरण करा देते हैं (याद दिलाते हैं) तभी शिष्य गुरु के पास जा सकता है ।

2) संकटों का निवारण : कुछ भक्त मानवीय स्वभाव के कारण, सांसारिक दुख ईश्वर ने (भगवान ने) दूर करने चाहिए, इस इच्छा से ईश्वर के पास जाते हैं। माता-पिता जैसे अपनी संतान को संकट में संभालते हैं उसी प्रकार ईश्वर भी अपने भक्तों को संकटों से मुक्त करेंगे, ऐसे उनकी समझ होती है। ऐसे भक्त पत्र लिखते हैं अथवा मन में ईश्वर की प्रार्थना करते हैं । इसका परिणाम यह होता है कि संकट तो निकल जाता है, अथवा संकट अटल है तो भक्तों के मन में वह सहन करने की शक्ति अथवा सामर्थ्य उत्पन्न होता है । भगवान ने इच्छा की इसलिए वैसा घटित नहीं होता था, परंतु भक्तों की श्रद्धा एवं उसकी शरणागति के कारण गुरुकृपा का जो प्रवाह होता है उस कृपा से यह संभव होता है।

3) प्रारब्ध सहन करने की क्षमता बढना : मंद प्रारब्ध भोगने की क्षमता मध्यम साधना से, मध्यम प्रारब्ध भोगने की क्षमता तीव्र साधना से तथा तीव्र प्रारब्ध भोगने की क्षमता केवल गुरुकृपा से ही प्राप्त होती है ।

गुरुमहिमा : -

1) पिता पुत्र को केवल जन्म देता है; परंतु गुरु उसे जन्म मृत्यु से मुक्त करवाते हैं, इसलिए पिता से भी अधिक गुरु को श्रेष्ठ माना गया है।
2) एक बद्ध जीव दूसरे बद्ध जीव का उद्धार नहीं कर सकता, परंतु गुरु मुक्त होने के कारण शिष्यों का उद्धार कर सकते हैं।
3) भगवान श्रीकृष्ण ने भी बतलाया है कि ईश्वर भक्ति की अपेक्षा गुरु भक्ति अधिक श्रेष्ठ है। श्री कृष्ण कहते हैं मुझे मेरे भक्तों की अपेक्षा गुरु भक्त अधिक प्रिय हैं।
4) संत एकनाथ ने कहा है कि "विश्व में जो ईश्वर है वह एक ही व्यापक सद्गुरु है अतः सब उनका आदर करते हैं"।
5) श्री ब्रह्मचैतन्य गोंदवलेकर महाराज ने कहा "मुझे जो चाहिए था, वह सब एक जगह श्री तुकाराम जी के पास मुझे मिला। मुझे निर्गुण का साक्षात्कार, सगुण का प्रेम एवं अखंड नाम एक जगह चाहिए था। वह उनके पास मिला।"
6) श्री शंकराचार्य जी ने कहा है ज्ञान दान करनेवाले सद्गुरु को शोभा दे ऐसी उपमा इस त्रिभुवन में कहीं भी नहीं है । उन्हें यदि पारस की उपमा दी जाए तो भी वह कम होगी क्योंकि पारस लोहे को स्वर्णत्व तो देता है; परंतु अपना पारसत्व नहीं दे सकता ।
7) गुरु को उपमा देने योग्य इस संसार में दूसरी कोई भी वस्तु नहीं गुरु को सागर जैसा कहें तो सागर के पास खारापन है; परंतु सद्गुरु हर तरह से मीठे ही होते हैं । सागर में (समुद्र में) ज्वार भाटा होता है परंतु सद्गुरु का आनंद अखंड रहता है । सद्गुरु को कल्पवृक्ष कहें तो कल्पवृक्ष हम जो कल्पना करते हैं वह पूरी करता है, परंतु सद्गुरु शिष्य की कल्पना समूल नष्ट करके, उसको कल्पनातीत ऐसी वस्तु प्राप्त करा देते हैं । इसलिए गुरु का वर्णन करने के लिए यह वाणी असमर्थ है।

संदर्भ : सनातन संस्था का ग्रंथ "गुरुकृपायोग"
हमारे खबरों को शेयर करना न भूलें| हमारे यूटूब चैनल से अवश्य जुड़ें https://www.youtube.com/divyarashminews https://www.facebook.com/divyarashmimag

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ