पर्यावरण
अपने ही खेतों में मैं, जाता था कभी,
वृक्षों की छाँव में, गुनगुनाता था कभी।
पक्षियों का कोलाहल, पास होता था मेरे,
रहट की धुन सुन, मुस्कराता था कभी।
ठण्डा शीतल जल निकलता था कुएँ से,
रोज रोज वहाँ पर नहाता था, मैं कभी।
गर्मियों के दिन, फूट, कचरी और खरबूजा,
बैठकर कुए की डोल पर, खाता था कभी।
आधुनिकता की दौड़ में विकसित हुआ,
वृक्षों को काटकर, मानव प्रसन्न हुआ।
अब नहीं पक्षियों का मधुर कलरव कहीं,
छाया की तलाश में, आदमी व्यथित हुआ।
फूट, कचरी, सैंध-अब बीते दौर की बातें,
शीतल जल के लिए भी, मानव तृषित हुआ।
बैल, गाय, पशु लगने लगे, बेकार की बातें,
ट्रेक्टर और मशीनों पर, कृषक आश्रित हुआ।
संवेदनायें भी अब तो, मृत प्रायः हो गयी,
जब से कृषि का यहाँ, मशीनीकरण हुआ।
(फूट, कचरी, सैंध यह तीनो गर्मी में पैदा होने वाले फल हैं जो अब लगभग ख़त्म होते जा रहे हैं )
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