चलते-चलते दिन सरकते रहे ।।
सोंच की हुई चौड़ी छाती आखिर
लेकिन कुछ अपनो में निकले शातिर।
सीधापन में भी दिख जाता है खोट
आचरणी पाँव भी बहकते रहे।।
थोड़े संवादों में जल्प का मजा
निरपराध भोग रहा सत्य की सजा
अंँखुआये बिंबों में काव्य की चुभन
रस भीगे छद खूब दरकते रहे।।
कुंठित से पर्वत नदी, हरित वन
रिझा नही सके लताओं का भी मन
अनपेक्षित झंझा का उभरा आवेश
दिखा, किंतु यूँ ही सब सहते रहे।।
एकमुश्त आकांक्षाओं के अभिकल्प
बाँच नहीं पाते प्रत्याशित संकल्प
मोरपंख - सा मनहर मन का विश्वास
हिला, किन्तु भाव कलश छलकते रहे।।
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डॉ रामकृष्ण
संज्ञायन, , विष्णु पद मार्ग, करसीलीगया, बिहार
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