नदी किनारे बैठ सीढ़ियों पर मैं सोंच रहा हूँ,
कब आएगा पानी का वह ज्वार विचार रहा हूँ। ।तपी बालुका राशि वायुमंडल को चिढ़ा रही है
ताप मान की असहज जड़ता को ललकार रही है।
फल्गू का यह रौद्र रूप कब तक विक्रांत रहेगा,
गर्म श्वाँस के नम्र भाव से मेघ पुकार रहा हूँ।।
तनिक पास में ही होता है शव की दाह क्रियाएँ
इसी बालुकामयी राशि मे दवतीं लघु कायाएँ।।
ऊँचे पर घड़ियाल, शंख के नाद पुण्य रचते हैं
दूर चिता की ज्वाला में शिव तत्व निहार रहा हूँ।।
सीता का वह श्राप ढो रही जाने अनजाने ही,
इस धरती की मानवता ने छला ,दिय ताने ही।
कृत्य अमानुष के प्रसार में नहीं हो रही बाधा
फिर भी अपने को बचाव मे कर्म सँवार रहा हूँ।।
रबर डैम में धनकुबेर जनता की सोना-चाँदी
बिछी, बाँध में समा गयी मन के हुलास की आँधी।
भूखी प्यासी नदी - रेत नि:शब्द पुकार रही है
उसकी ही करुणा का तो मैं भी उपकार रहा हूँ।।
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डॉ रामकृष्ण
संज्ञायन/ विष्णु पद मार्ग करसीली, गया, बिहार
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