समकालीन दोहे
-मार्कण्डेय शारदेयबढ़ा ग्रीष्म के सूर्य का, जग पर अत्याचार।
चूस रहा है इस कदर, जैसे चोष्य बिहार॥
रक्तपान कर सिंह बन, उगल रहा है आग।
जैसे भय देते सदा, जिनके ऊपर दाग॥
मरी-मरी स्रोतस्विनी, मरे-मरे तरु-गुल्म।
ज्यों हरियाली छीनकर, ढाए जाएँ जुल्म॥
आज दूध से बढ़ गया, ताड़ी का ही मान।
जैसे सच्चे लोग से, झूठे बने महान॥
परती धरती इस तरह, ताक रही आकाश।
‘दिल्ली-नाट्यम्’ देखते, जन ज्यों टीवी पास॥
बड़ी सुहानी लग रही, शोषकवर की शाम ।
यथा भैरवीचक्र में, उछल रहा हो जाम॥
वर्षाऋतु की ताक है, यही सिर्फ है आस। संजीवनी–सुधा पिला , दूर करेगी प्यास॥
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