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नहीं बदली गरीबों की तकदीर - जहां थी वहीं है गरीबी

नहीं बदली गरीबों की तकदीर - जहां थी वहीं है गरीबी

दिव्य रश्मि संवाददाता जितेन्द्र कुमार सिन्हा की कलम से |
देश आजाद हुए 75 वर्ष हो गई, लेकिन नही बदली देश के गरीबों की तकदीर। किसान जैसा था वैसा ही है, उनकी समस्याओं की सूची अभी भी लंबी है। टूथपेस्ट, क्रीम, पाउडर आदि से लेकर कोल्ड ड्रिंक्स ऐसे कई प्रोडक्ट है, प्रतिबंधित रहने के वाबजूद भी देशी पाउच से लेकर विदेशी तक सहज उपलब्ध होता है। यह सोच कर मन हो जाता है बेचैन।
राजनेता द्वारा चुनाव के समय या उससे पहले भी दिलाशा तो दी जाती है लेकिन अमल नहीं किया जाता है। सड़क, पुल एवं पुलिया बनी है और बन भी रही है, लेकिन कल-कारखाने नहीं लगी है और बेरोजगारी बढ़ी है।
सरकार कई योजनाओं में साईकिल योजना, शिक्षा योजना, पोषाक योजना, वृद्धा पेंशन योजना, जयप्रकाश पेंशन योजना, पत्रकार सम्मान पेंशन योजना, पत्रकार बीमा योजना के अतिरिक्त अन्य कई योजनाएँ लागू की है, परन्तु सभी की राशि इतनी कम है, जिससे लगता है कि ऊँट के मुँह में जीरा का फोड़न।
अगर राजनेता वादों पर थोड़ा बहुत भी अमल करती, तो आज लोगों की तकदीर और देश की तस्वीर अलग रहती। भले ही सरकार सड़क बनाने की बात करती हो, लेकिन आज भी कई जगहों पर चचरी पुल पर जिन्दगी रेंग रही है। शिक्षा व्यवस्था तो चौपट हैं ही, हाल के वर्षों में भूमाफिया का भी कद बढ़ा है और प्रशासन उसके आगे नतमस्तक प्रतीत होता है।
राजनेताओं को कहते सुना जाता है कि स्वदेश की सुरत बदली है। न्याय के साथ विकास हो रहा हैं। लेकिन हकीकत तो यह है कि अधिकांश जगहों पर लोग जल जमाव के बीच जीने को विवश हैं। जल निकासी की समुचित व्यवस्था नहीं रहने के कारण, लोगों को काफी परेशानियाँ उठानी पड़ रही है। जल निकासी की व्यवस्था कुशल प्रबंधन के तहत योजनाबद्ध तरीके से नहीं की जा रही है। देखा जाय तो वदमाश वेखौफ है, पुलिस को चुनौती देते हुए अपराधिक वारदातों को अंजाम दे रहे हैं। कहने के लिए तो अपराध एवं अपराधियों की नकेल कसने के मकसद पर हमेशा समीक्षा होती है और समीक्षा में मौके पर लगाम कसने के लिए निर्देश के वावजूद भी घटनाओं में कमी नहीं दिखती, बल्कि बढ़ता ही जा रहा है। लगता है कि प्रशासन महकमों की बातों को एक कान से सुनकर दूसरे कान से निकाल देते हैं। बढ़ रहे अपराध के ग्राफ इस बात को प्रमाणित करता है कि बढ़ती अपराधिक घटनाओं से, लोगों का विश्वास, पुलिस से दिन पर दिन उठता जा रहा है।
देहात में बच्चे कुपोशन के शिकार हो रहे हैं। अस्पतालों में इसे देखा जा सकता है। आज भी देहात की महिलाएँ दो गज के चिथरों में और पुरूष दो हाथ की लंगोटी में रहने को विवश हैं।
आरक्षण का खेल भी ऐसा ही है। कहने का तात्पर्य यह है कि देश की आजादी के समय से समस्यायें यथावत हैं। भले ही कागज पर तकदीर और तस्वीर बदल गई हो यह अलग बात है, लेकिन यह कहा जा सकता है कि बदलती रही सत्ता, नहीं बदली और नहीं बदल रही गरीबों की तकदीर - जहां थी वहीं है गरीबी।
आज भी यहां जिस घर में दादा किसान थे, तो पोता भी किसान है। जो हरवाहे का काम करता था, उसका पोता भी आज हरवाहे है। जो सूद के पैसे से जिन्दगी जीता था, उसके पोते भी सूद पर जिन्दगी जी रहा है। चाहे क्यों न वह लोन, निजी लोन, बैंक लोन या सरकारी लोन हो। दुनियाँ चाँद पर घर बनाने की सोच रही है लेकिन दो जून की रोटी के जुगाड़ करने वाले पोते, आज भी दो जून की रोटी के जुगाड़ में ही जी रहा है। सरकारें आती हैं और बदलती है लेकिन गरीबी जहां थी वहीं है। राजनीतिक पार्टियाँ बढ़ी वेतहासा बढ़ी है और अपनी पहचान विदेशों तक बनाई है।
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