बचपन के दिन गाँव के, उन्मुक्त होकर खेलना,
गिल्ली डंडा, धमा चौकडी, पगडंडियों पर दौडना।वृक्ष की डाली थी झूला, स्विमिंग पूल तालाब थे,
लुका छिपी खेलते थे और धान का भी रौपना।
होता था झगडा भी मगर, प्यार भी सबमें बहुत था,
गाँव था अपनी हवेली, न रिश्तो का पारावार था।
वो गर्मी की रातें और गगन, ज्ञान का भन्डार दादी,
चाँद तारे नक्षत्र मंडल, कहानियों का अम्बार था।
खो गया है गाँव मेरा, और बचपना भी खो गया,
खो गया वह नीम का वृक्ष, मेरा झूला खो गया।
कल गया था गाँव में, पगडंडियाँ सब खो गयी,
था हवेली सा गाँव जो, शहरी हवा मे खो गया।
डॉ अ कीर्ति वर्द्धन
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