यह समय आरोप प्रत्यारोप का नही, जागने का है-----
आज क्यों तुम्हें इतना बुरा लग रहा है,ब्राह्मण, दलित का सम्बन्ध बढ रहा है।
रहते हो खामोश, जब मुस्लिम होता है,
जाति- धर्म का ताना आज ढल रहा है।
दे रहे थे उपदेश, जब बेटी गैर की थी,
निज बेटी पर पडी तो हिया जल रहा है।
कह रहे थे रोज ही, बच्चों को संस्कार दो,
सभ्यता और संस्कृति का उसे उपहार दो।
देर रात बच्चे रहें घर से बाहर, खामोश थे,
आज आजादी का मतलब खल रहा है।
घूमती है अर्धनग्न बेटियाँ, खुश हुये हम,
आधुनिक है वह, शान से कह रहे हम,
भेड की खाल ओढे, कौन घर में आ रहा है,
स्वार्थ का लालच दिखा, कौन छल रहा है?
कर दीजिये शादी विवाह, उचित समय पर,
आज बेटे बेटियों का, रूप यौवन ढल रहा है।
बेहतर पाने की चाह, सत्य से मुँह मोडना,
आज युवा संस्कार- सभ्यता तज रहा है।
अ कीर्ति वर्धन
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