राजस्थान की अशोक गहलोत सरकार और भाजपा की निष्क्रियता
- डॉ राकेश कुमार आर्य
इस समय जबकि मणिपुर को लेकर सरकार और विपक्ष में तनातनी जारी है ,उसी समय राजस्थान में अशोक गहलोत की सरकार में मंत्री रहे राजेंद्र गुढ़ा ने वहां की राजनीति में खलबली मचा दी है। गुढ़ा ने विधानसभा के पटल पर अपनी ही सरकार पर निशाना साधा और कहा कि हमें मणिपुर के बजाय अपने गिरेबां में झांकना चाहिए। उन्होंने प्रदेश में महिलाओं पर हो रहे अत्याचारों की ओर संकेत करते हुए अपनी ही पार्टी की सरकार पर जोरदार हमला बोलते हुए कहा कि हम महिलाओं की सुरक्षा के मामले में असफल हो गए हैं। गुढ़ा के इस प्रकार के बयान से वहां की प्रमुख विपक्षी पार्टी भाजपा को बड़ी ऊर्जा प्राप्त हुई। यही कारण रहा कि गुढ़ा के इस बयान पर सदन में ही भाजपा ने अपने उत्साह का प्रदर्शन करते हुए उनके बयान का समर्थन मेज थपथपाकर किया।
जब किसी प्रदेश की सरकार में कोई मंत्री इस प्रकार का बयान देता है तो निश्चित रूप से उससे संबंधित सरकार की कार्यशैली पर बड़ा प्रश्न चिन्ह लगता है। लोगों को यह समझ में आ जाता है कि इस सरकार में जो कुछ भी हो रहा है वह सब कुछ ठीक-ठाक नहीं है। राज्य सरकार में मंत्री रहे गुढ़ा के इस बयान के बाद राजस्थान की राजनीति में उबाल आ गया।
यह स्वाभाविक ही था कि श्री गुढ़ा के इस प्रकार के बयान को मुख्यमंत्री अशोक गहलोत पसंद नहीं करते। यही कारण रहा कि उन्होंने उनके बयान के 6 घंटे के बाद ही उन्हें राज्यपाल के द्वारा मंत्री पद से बर्खास्त करवा दिया।
राजेंद्र गुढ़ा 2008 में पहली बार बसपा से चुनाव लड़कर जीते थे। उसके बाद उन्होंने अपनी पार्टी के विधायकों के साथ गहलोत सरकार को समर्थन दे दिया था। साल 2018 में भी राजेंद्र फिर चुनाव जीते और गहलोत सरकार को समर्थन दिया।गुढ़ा को गहलोत सरकार में दोनों बार मंत्री बनाया गया। इस प्रकार की कारगुजारी से पता चलता है कि श्री गुढ़ा का चरित्र कैसा है और वह राजनीति में कौन सी विचारधारा या कौन से मूल्यों को लेकर आगे बढ़ रहे हैं?
पर यहां पर इससे भी बड़ा सवाल यह है कि जब गुढ़ा ने अपनी ही पार्टी की सरकार पर यह गंभीर आरोप लगाया है कि प्रदेश में महिलाओं की दशा मणिपुर से भी खराब है, तब भाजपा जैसी राष्ट्रीय पार्टी राजस्थान विधानसभा में विपक्ष की भूमिका निभाते हुए अब तक क्या कर रही थी? जो बात गुढ़ा को चुभ रही थी क्या वह भाजपा को नहीं चुभ रही थी? और यदि चुभ रही थी तो उसने मणिपुर से भी पहले राजस्थान की इस दुर्दशा को विधानसभा और सड़कों पर क्यों नहीं उजागर किया?
इन प्रश्नों के बारे में विचार किया जाए तो पता चलता है कि भाजपा की प्रदेश कमेटी पूरी तरह निष्क्रियता का शिकार है। वहां पर महारानी के नाम से मशहूर विजय राजे सिंधिया भाजपा का बेड़ा गर्क करने पर तुली हैं। लगता है राष्ट्रीय नेतृत्व भी यह मन बनाए बैठा है कि यदि विजय राजे सिंधिया से पिंड छुड़ाने के लिए एक बार कांग्रेस को और मौका दे दिया जाए तो कोई बुरी बात नहीं है। पर वास्तव में भाजपा की प्रदेश इकाई और राष्ट्रीय नेतृत्व की इस प्रकार की सोच को किसी भी दृष्टिकोण से उचित नहीं माना जा सकता।
विजय राजे सिंधिया की मानसिकता और कार्यशैली को पढ़ने से लगता है कि वह यह माने बैठी हैं कि राजस्थान का मतदाता एक बार कांग्रेस को तो दूसरी बार भाजपा को सत्ता सौंपता है। इसलिए इस बार उनकी सरकार बननी निश्चित है। उनकी मान्यता है कि जब बैठे-बिठाए सत्ता आ ही रही है तो फिर काम करने की आवश्यकता क्या है? इसी के चलते पूरी प्रदेश की भाजपा कार्यकारिणी बीमार है। वहां के विधायकों में भी वह जोश नहीं है जो एक जागरूक विपक्ष के विधायकों में होना चाहिए। वह सब भी महारानी की चाटुकारिता करते हुए अपनी विधायकी बचाए रखने की जुगत में लगे हुए हैं। विधायकों की इस प्रकार की चाटुकारिता जहां महारानी को खुराक दे रही है वही पार्टी के राष्ट्रीय नेतृत्व को महारानी पर कार्यवाही करने से रोक रही है।
वास्तव में भाजपा नेतृत्व महारानी के सामने सालों से अपने आप को मजबूर समझता आ रहा है। जिस समय कांग्रेस के सचिन पायलट ने पार्टी से बगावत कर प्रदेश में नई सरकार बनाने के लिए भाजपा से अपनी गोटियां बैठाई थीं उस समय भी सचिन पायलट का काम बनते बनते इसलिए बिगड़ गया था कि महारानी ने उनके साथ काम करने से पूरी तरह इनकार कर दिया था। इतना ही नहीं, वह अपने समर्थक विधायकों के साथ कांग्रेस के साथ जाकर अशोक गहलोत को मुख्यमंत्री बनाए रखने या अपने लिए सत्ता का सौदा करने की जुगत में भी बहुत आगे तक निकल चुकी थीं। ऐसी परिस्थितियों में भाजपा के सामने 'यू टर्न' लेना उसकी मजबूरी बन गई थी। तब सचिन पायलट भी मन मसोसकर पीछे हट गए थे। अब सचिन पायलट अशोक गहलोत के सामने जोश तो भरते हैं पर उन्हें पता है कि जब तक भाजपा में महारानी की चल रही है, तब तक उनकी दाल गलने वाली नहीं है। कुल मिलाकर इसका लाभ अशोक गहलोत को मिलता रहा है और उसी का परिणाम है कि प्रदेश की कानून व्यवस्था की स्थिति बद से बदतर होती चली गई पर अशोक गहलोत के विरुद्ध ना तो विपक्ष लामबंद हुआ और ना ही पार्टी के आलाकमान ने उनसे स्थिति को सुधारने की ओर कोई संकेत किया।
अब से 5 वर्ष पहले जब राजस्थान के विधानसभा के चुनाव होने वाले थे तब मैं स्वयं राजस्थान में एक पर्यवेक्षक के रूप में इस बात की पड़ताल करने के लिए गया था कि इस बार सरकार किसकी बन रही है? उस समय वहां के लोगों का कहना था कि
वह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से तो खुश हैं पर प्रदेश सरकार की मुखिया विजय राजे सिंधिया की कार्यशैली से खुश नहीं है। तब वहां के लोगों ने नारा लगाया था कि 'मोदी तुझसे बैर नहीं- रानी तेरी खैर नहीं।' इस नारे ने अपना असर दिखाया और विधानसभा चुनावों में भाजपा को सत्ता से बाहर कर दिया। भाजपा को चाहिए था कि उसी समय महारानी का उचित इलाज किया जाता। पर वह महारानी और उनके भतीजे ज्योतिरादित्य सिंधिया को साधने में लगी रही। उसी का परिणाम रहा कि धीरे-धीरे पूरे 5 वर्ष बीत गए। पार्टी का राष्ट्रीय नेतृत्व जहां रानी को लेकर पशोपेश में फंसा रहा वहीं रानी आराम से महिलाओं में बैठकर राजनीति पर अपना नियंत्रण स्थापित किया रखने में सफल रही। ना तो उन्होंने प्रदेश की अशोक गहलोत सरकार को सचिन पायलट के माध्यम से गिरने दिया और ना ही भाजपा व सचिन पायलट का गठबंधन बनने दिया।
कांग्रेस के राहुल गांधी ने जिस प्रकार चुनावों के समय वहां के लोगों को बड़े बड़े चुनावी नारे देकर उनको प्रलोभन दिए थे, झूठे वायदे किए थे, वे सारे के सारे कहीं भी क्रियान्वित नहीं किए गए। क्या ही अच्छा होता कि राहुल गांधी के द्वारा दिए गए झूठे नारों और वायदों की पोल खोली जाती और प्रदेश के लोगों को बताया जाता कि उनको राहुल गांधी ने किस प्रकार ठग लिया है?
अपनी निष्क्रियता, प्रमाद आलस्य और दंभ में फूली भाजपा अब किस मुंह से लोगों से जाकर वोट मांगेगी ? क्या गुढ़ा को वह अपनी ढाल बनाएगी या खुद गुढ़ा की ढाल बनने की तैयारी कर रही है?
- डॉ राकेश कुमार आर्य (लेखक सुप्रसिद्ध इतिहासकार और भारत को समझो अभियान समिति के राष्ट्रीय प्रणेता हैं।)
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