लो; सावन आ ही गया:-मार्कण्डेय शारदेय
मार्कण्डेय शारदेयलो; सावन आ ही गया।आ ही गया प्यारा सावन।पलक पाँवड़े बिछाकर सभी बैठे थे कि आया। बादलों ने वितान तान दिए।फुहियाँ बरसने लगीं।नन्ही-नन्ही दूब पर नन्हे-नन्हे बल्व झिलमिलाने लगे।हर ओर हरे-हरे झंडे लहराने लगे।धरती ने हरी कालीन बिछा दी।पहाड़-टीले हरे रंग से नहा लिये। पेड़-पौधे हौले-हौले चँवर डुलाने लगे।ग्राम्य बालाओँ की तरह धान की पौध थिरकने लगी। मेढक स्वस्तिवाचन करने लगे।झींगुर झाल बजाने लगे।मोर नृत्यकला का प्रदर्शन करने लगे।सब-के-सब स्वागत में।कोई नहलाने की व्यवस्था में गड्ढे-गड्ढे को भरने लगा तो कोई नवपुष्प नवदल का सिंहासन तैयार करने लगा।आखिर सालभर पर पाहुन जो आए हैं!
पाहुन जो आए हैं। वह रोबदार जेठ की तरह तो एकदम नहीं।और दस से भले कुछ मिलते-जुलते हो सकते हैं। हाँ; फागुन से कुछ अधिक मिलते-जुलते जरूर हैं।बहुत अधिक नहीं।कारण कि उसमें भी कुछ कड़ापन है, उसका हृदय भी पुरुषवत् है, पर यह तो कर्क राशि पर चढ़ आए हैं! शीतल, सौम्य चन्द्र की आह्लादकता पर सवार।जगजननी पार्वती के स्वरूप हिमहृदय, नारीहृदय, मातृहृदय, कान्ता-सम्मित है, जो चन्द्रमा।उसकी राशि कर्क।माँ की वत्सलता, ममता के कारण ही तो जन-जन की माँ के पौरुष मामा हैं, चन्दा मामा! उत्तरायण और दक्षिणायन भी तो क्रमशः पुरुष-प्रधान एवं प्रकृति-प्रधान होने का द्योतक हैं! खैर; सावन आया, सबको भाया।
आषाढ़ ने इसके स्वागत की सारी व्यवस्था कर रखी थी।आर्द्रा और पुनर्वसु ने विषय-प्रवर्तन कर दिया था।यह पुष्यवीथि से आ गया।हाँ; वही पुष्य जिसने कभी ब्रह्मा जी के मन को भी उद्वेलित कर दिया था।कामाकुल कर दिया था।माना कि शापित भी हुआ, पर विवाह ही के लिए न! शृंगार के लिए नहीं न! विवाह की बात ही कौन कर रहा है यहाँ! ब्रह्मा बाबा को तो शृंगार ही ने न अन्धा बनाया था! छोड़िए; वह बात।बस; खुशी है कि सावन आ गया।
सावन! सबका सावन।मनभावन सावन।पावन सावन।प्रकृति अपना बता रही तो धरती आपना। किसान अपना बता रहे तो जीव-जन्तु, पेड़-पौधे, पहाड़-पहाड़ियाँ अपना।नदी-नाले, गाँव-गँवई सब अपनी ही ओर खींच रहे हैं।एक सावन किसको छोड़े, किसको अपनाए! सर्वप्रिय तो नहीं कह सकता, पर लोकप्रियता की यह कसौटी सही जरूर है।जो सर्वाधिकों को भाए, वही तो सबका है! फिर सब अपनी ओर क्यों नहीं खींचेंगे! श्रीकृष्ण की रासलीला में सभी गोपियाँ कृष्णमय थीं और वह किसी को महसूसने ही नहीं दिए कि मैं तेरे साथ नहीं।जितनी गोपियाँ, उतने कृष्ण।यही तो रस है। यही तो रास है।
सावन आया और किसानों के साथ खेत में बैठ गया।पेड़-पौधों, घास-तिनकों को सहलाया।पहाड़-पहाड़ियों को, नदी-नालों को, आहर-पोखर को गुदगुदाया।सभी खिलखिला गए।सभी उन्मत्त-से हो गए।ग्रीष्म में जो सहा था, जो गँवाया था, इसने सूद सहित सहर्ष लौटा दिया।फिर क्या; पहाड़ों पर, खेतों में, वन-बागों में, जीव-जन्तुओं में ही नहीं मानव में भी हरियाली तिरने लगी।सबके चेहरे से खुशी छिटकने लगी।सब हरे-हरे हो गए।अब कण्ठ भी फूट गया।मोर-मोरनी के बीच मनुहार गीत, अन्य पशु-पक्षी भी स्वरा की साधना में सिद्ध होने लगे।ऐसे में मानव-मन कहाँ पिछड़ने वाला है! पशु चराते चरवाहे, हल जोतते किसान, सोहनी-रोपनी करती स्त्रियाँ, झूला झूलतीं बालाएँ सबके सब गायन से सावन का स्वागत-सत्कार कर रहे हैं।कहीं कजली तो कहीं जँतसार, कहीं उधवा तो कहीं मल्हार।
रसमय है सावन। भोजन के षड्रसों की तरह ही नहीं, काव्य के नवरसों की तरह भी।जिसे जो चाहिए, वही पाइए।लिट्टी-चोखा, पकौडा-पकौड़ी, खट्टी-मीठी चटनी के साथ बरसात का मजा लीजिए या विविध व्यंजनों के साथ।जहाँ जो सुलभ, वहीं सब कुछ।बस; आनन्द लेने की बात है।मन किसी का नहीं भरा, आवश्यकताएँ अतृप्त ही रहीं।
हाँ; ब्रह्मा बाबा ने तो इन्द्रिय-सुख के लिए आस्वाद्य छह ही रसों की सृष्टि की, जो मीठा, खट्टा, कड़वा, कसैला, तीता तथा नमकीन के नाम से जाने जाते हैं, पर उन्हीं के अंश कवियों ने बाप से आगे बेटा दिखाते हुए नौ काव्यरसों की रचना कर डाली-शृंगार, हास्य, वीर, करुण, रौद्र, वीभत्स, भयानक, अद्भुत एवं शान्त। शृंगार का जलवा सबसे ज्यादा रहता है, इसीलिए रसराज है।सावन भी आया तो खाली हाथ नहीं आया।खाली हाथ पाहुन का आना भला किसे सुहाता है! विविध फल-फूल लाया तो साहित्यरस भी।रसराज यहाँ भी अपना रस उड़ेलने लगा।कहीं संयोग तो कहीं वियोग।संयोग जितना सुखद, वियोग उतना ही दुःखद। पुरुष हो या स्त्री विरह की घूँट सबके लिए जहरीली ही होती है।सूर की गोपियाँ कराहती कहने लगीं- ‘सदा रहत पावस रितु हम पै, जबते स्याम सिधारे’ तो तुलसी के राम भी कहने लगे- ‘प्रियाहीन डरपत मन मोरा’।ये तो बानगी मात्र हैं।साहित्य के खजाने ऐसे असंख्य उदाहरणों से अँटे पड़े हैं।चराचर जगत अनगिनत सजीव चित्र सँजोए हुए है।
सावन वीर रस को दबाए रखता है, इसलिए यह युद्धार्थ योजना बनाने मात्र का काम करता है। अनायास वीर को वीरता दिखाने का अवसर आ जाए तो अलग बात है।अन्य रस भी अंग ही बन पाते हैं, क्योंकि रसराज के आगे यहाँ किसी की नहीं चलती।हाँ; कुछ लोगों ने भक्ति को अलग दसवाँ रस मान लिया है, पर है तो शृंगार का ही शुद्ध छना रूप।नारद जी ने तभी तो ‘परम प्रेमरूपा’ कहा है! सांसारिक प्रेम शृंगार तो आध्यात्मिक प्रेम भक्ति।जहाँ सामान्यतः प्रिय-प्रिया के संयोग-वियोग इन्द्रिय-सुख से मन तक केन्द्रित रहते हैं, वहीं विशेषतः प्रेमाभक्ति इष्ट देवी-देवता के अनुराग की प्रगाढता से आध्यात्मिक सुख के रूप में आत्मा तक पहुँचाती है।सावन आया तो भोले की भक्ति बरसाती नदी-सी उमड़ चली।आखिर भोले की ही भक्ति क्यों? तैंतीस से तैंतीस करोड़ में बढ़े हमारे देवी-देवताओं में इन्हें सिर-आँखों पर क्यों बैठाया गया? हाँ; प्रश्न वाजिब है, पर उत्तर गूढ़ है, असहज है।फिर भी।शास्त्रार्थ की कठोरता से सावन और शिव के शील को घायल न होने दें।मिट्टी और जल का संगम ही तो सावन है! जल में मिट्टी या मिट्टी में जल का समान अनुपात में योग होगा तो जल जल नहीं रहेगा न! मिट्टी मिट्टी नहीं रहेगी न! एक दूसरे के हो जाएँगे न! यही तो भोलापन है।परस्पर अस्तित्व का समर्पण।जल बरसता है मिट्टी गीली होती है।प्रेम बरसता है, काया ढीली होती है।पानी-माटी का मेल सृष्टि, प्रेम-काया का मेल सृष्टि।धरती-आकाश का मेल सृष्टि।यही तो एकात्मक अर्धनारीश्वर है! फिर कोई इससे दूर कैसे? तैंतीस हों या तैंतीस करोड़ या अरब, खरब; सब शिव-शक्ति के ही व्यवहार-हेतु हैं! इसलिए सबमें शिव हैं, शिव में सब।फिर; जहाँ शिव, वहाँ शिवा।धरती माता, आकाश पिता। दोनों का यह संसार, दोनों का यह परिवार।परम हो या अपरम प्रेम पढ़ाने ही तो सावन आया है! देखो; नदियाँ समुद्र को पाने के ही लिये तो बरसाती बनी हैं! सरपट दौड़ी जा रही हैं! जहाँ देखो, वहीं शिव-शिवा का वागर्थ-संयोग है।सावन एकत्व के लिए ही तो वातावरण तैयार करने आया है, ताकि अभिमान, ईष्या, द्वेष, घृणा, क्रोध आदि के जो ढेले हैं गल कर गीले हो जाएँ, ढीले हो जाएँ।*
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