दिव्य रश्मि संवाददाता जितेन्द्र कुमार सिन्हा की कलम से।
भगवान शिव की उपासना करने से स्वतः भगवान ब्रह्मा एवं विष्णु की भी उपासना हो जाता है, क्योंकि त्रिदेवों में परस्पर कार्य भेद नहीं है, जो भेद दिखता है, वह केवल लीला मात्र है। शिवपुराण में भगवान शिव के परात्पर निर्गुण स्वरूप को ‘सदाशिव’, सगुण स्वरूप को 'महेश्वर’, विश्व का सृजन करने वाले स्वरूप को ‘ब्रह्मा’, पालन करने वाले स्वरूप को ‘विष्णु’ और संहार करने वाले स्वरूप को ‘रूद्र’ कहा गया है।
पंच देवोपासना सनातन धर्म में अनादि काल से चला आ रहा है। पुराणों के अनुसार, संसार में सर्वाधिक भक्त भगवान शिव के है, क्योंकि भगवान शिव की उपासना असुर भी करते हैैं। इतना ही नहीें भूत-प्रेतादि भी भगवान शिव के ही परिवार माने जाते हैं। कहने का तात्पर्य है कि भगवान शिव के उपासक सभी लोग है। भगवान शिव को कल्याणकारी देव माना जाता है।
भगवान विष्णु तीनों लोकों के पालनहार हैं और ये अन्दर से तमोगुणी और बाहर से सतोगुणी हैं। भगवान विष्णु सृष्टि का पालन करते हैं, इसलिए देखने में तो सृष्टि सुखरूप प्रतीत होता है। भगवान विष्णु का कार्य बाहर से सतोगुणी होने पर भी तत्वतः तमोगुणी ही है। इसलिए भगवान विष्णु के वस्त्राभूषण सुन्दर और सात्तिवक होेने पर भी स्वरूप श्याम वर्ण है।
भगवान ब्रह्म देव जो तीनो लोकों को उत्पन्न करते हैं। भीतर और वाहर से उभय रूप में रजोगुणी है। भगवान ब्रह्म देव सदा सृष्टि का निर्माण किया करते हैं, इसलिए वे रक्तवर्ण हैं, क्योंकि क्रियात्मक स्वरूप को शास्त्रों में रक्तवर्ण बताया गया है।
भगवान शिव सृष्टि का संहारक हैं। वे देखने में दुःखी रूप लगते हैं, लेकिन संसार को मिटाकर परमात्मा में एकीभाव कराना उनका सुखरूप होता है। इसीलिए भगवान शिव का बाहरी श्रृंगार तमोगुणी होने पर भी स्वरूप सतोगुणी है और उनका शीघ्र प्रसन्न होना भी आषुतोष कहलाता हैं। यह सतोगुण का ही स्वभाव कहलाता है।
समुन्द्र मंथन में देवताओं और असुरों ने मंथन में अमृत निकलने की अभिलाषा रख रहे थे, लेकिन अमृत निकलने के पूर्व मंथन में हलाहल विष निकल आया और हलाहल विष निकलने से उस विष ने देवताओं और असुरों को ही नहीं, बल्कि समस्त सृष्टि को ही भस्म करना शुरू कर दिया था। ऐसी स्थिति में समस्त ब्रह्मण्ड त्राहि-त्राहि कर क्रन्दन करने लगा था। सृष्टिकर्ता भगवान ब्रह्मा और सृष्टि के पालक भगवान विष्णु, दोनों चिन्तित हो उठे थे और सोचने लगे थे कि आखिर इस भयंकर असामयिक प्रलय से छुटकारा कैसे पाया जा सके। जब उपाय ढूंढने में असमर्थ हो गये तब वे दोनों अन्ततः भगवान भूतभावन आशुतोष शंकर की शरण में पहुंचे। भगवान शंकर ने परमानन्द में निमग्न होते हुए भी समस्त जीवों के त्राण के लिए उस हलाहल विष (भयंकर विष) को लोगों के देखते-देखते अपने कंठ में धारण कर लिया। हलाहल को कंठ में धारण करते ही जगत को परम शांति मिली।
संहारक भगवान शिव के संदर्भ में यह भी कहा गया है कि उनकी मि़त्रता हर एक दूसरेे वैरी लोगों के बची ही रही है यथा- गणपति वाहक मुषक और शिव भूषण सर्प वैरी होने पर भी समन्वय शक्ति से साथ-साथ रहते हैं। उसी प्रकार शिव भूषण सर्प और सेनापति वाहन मयूर का भी वैर, नीलकंठ के विष और चन्द्रमौलि के अमृत में भी वैर, भवानी वाहन सिंह और शिव वाहन बैल में भी वैर, काम को भस्म करके भी स्त्री रखने में परस्पर विरोध, शिव के तीसरे नेत्र में प्रलय की आग और सिर निरन्तर शीतल धरामयी गंगा से ठंडा, यह भी परस्पर विरोध, ऐसे दक्ष जामाता राजनीतिज्ञ होने पर भी भोले-भाले, परन्तु इस सहज परस्पर विरूता मे भी नित्य सहज समन्वय। यह भूतभावन देवाधिदेव महोदव की समन्वय शक्ति का ही परिचायक है।
एकादश रूद्रों की कहानी न केवल माहभारत और पुराणादि में वर्णित है, बल्कि उनका उल्लेख ऋग्वेदादि में भी मिलता है। ऐसे भगवान शिव के जिस संहारक स्वरूप को रूद्र कहा गया है उसकी उपाधियाँ अनन्त हैं। एकादश रूद्रों की विभूति समस्त देवताओं में विद्यमान है। वैसे तो भगवान रूद्र देव का सम्यक वर्णन सामान्य मस्तिष्क से परे है, फिर भी, शम्भू, पिनाकी, गिरीश, स्थाणु, भर्ग, सदाशिव, शिव, हर, शर्व, कपाली तथा भव, एकादश रूद्र हैं।
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