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आंख किसकी यहां डबडबाई नहीं ?

आंख किसकी यहां डबडबाई नहीं ?

शर्म बेशर्मों को रंच आई नहीं,
देखी ऐसी कहीं बेहयाई नहीं?


ऑख को बंद कर मौन साधे रहे,
शिकन उनके चेहरों पे पाई नहीं?


रात ऑसू बहाती रही रात भर,
सुबह भी कहीं मुस्कुराई नहीं?


जिस्म को नंगा करके घुमाया,उन्हें,
मां बहिन बेटी की याद आई नहीं?


देश का शेष कोना बचा कौन है,
आग तुमने जहां पे लगाई नहीं?


हाथ पर हाथ धर करके बैठे रहे,
क्या हुई अपनी जग में हसाई नहीं?


देखते-देखते रोग हद से ज्यादा बढा,
समय पर दिया क्यों दवाई नहीं?


सिर्फ कुर्सी के खातिर मरे जा रहे,
क्या सपथ तुमने मन से थी खाई नहीं?


छोड़ गुण्डे व बहसी दरिन्दों के,जय
आंख किसकी यहां डबडबाई नहीं?
*
~जयराम जय
'पर्णिका',बी-11/1,कृष्ण विहार,आवास विकास,कल्याणपुर,कानपुर-208017(उ.प्र.)
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