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अपने ऊपर बात पड़ी, तो गुस्सा आया,

अपने ऊपर बात पड़ी, तो गुस्सा आया,

न्यायधीश को मार दिया, तो गुस्सा आया।
न्यायालय की गलती, रोज ही कितने मरते,
सोच सोच कर जनता को, तो गुस्सा आया।


नहीं अमर है कोई, इतनी बात समझ लो,
चले गये राम और रावण, बात समझ लो।
राम अमर हैं जन जन मे़ं, मर्यादा की ख़ातिर,
रावण आज भी फूँका जाता, बात समझ लो।


अन्धा है कानून यहाँ, यह कहा जाता है,
रेवड़ी बाँटे अपनों को, यह देखा जाता है।
अन्धों का यह खेल, कोई समझ न पाया,
शायद खुश्बू से अपनों को, जाना जाता है।


लेते हैं संज्ञान स्वयं, बस कुछ मुद्दों का,
राजनीतिक हित सधते हों, उन मुद्दों का।
न्यायप्रहरी न्यायालय, लगता बिका हुआ,
लेता नहीं संज्ञान कभी, लम्बित मुद्दों का।


अ कीर्ति वर्द्धन

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