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जिन दिन देखे वे कुसुम

जिन दिन देखे वे कुसुम

डॉ सच्चिदा कुमार प्रेमी 
आदरणीय कामता प्रसाद सिंह जी "काम " की "संस्मरण यात्रा" पढ़ी थी। आदरणीय शंकर दयाल सिंह जी से मुलाकात डॉ सुरेन्द्र जी के साथ ही पटना के उनके निवास पर हुई थी। इन लोगों के संग का बीता समय आज संस्करण का प्रसंग हो गया ,प्लॉट हो गया है। शंकर दयाल बाबू से मिलने उनके निवास पर गया था । वे एक कवि सम्मेलन में जा रहे थे। उन्होंने हम लोगों से बात करते हुए उस सम्मेलन के लिए आमंत्रित किया। हम लोगों की रचनाधर्मिता से वे परिचित तो थे नहीं। मैंने कहा ,”बड़ा सम्मेलन होगा, बड़े बड़े कवि आएँगे, हम लोग------- “ बीच में टोकते हुए उन्होंने कहा, "कोई बात नहीं है, आपलोगों से बड़ा थोड़े कोई आवेगा ।और वैसे भी कोई ताली बजाए ,न बजाए-क्या फर्क पड़ेगा । आप पढ़ेंगे, तो सुरेन्द्र जी बजा देंगे और सुरेन्द्र जी पढ़ेंगे तो आप ताली बजा दीजिएगा ,हो गया। "
मैं मनिका में विद्यालय में ही रहता था। मालूम हुआ कि शंकर दयाल बाबू आए हुए हैं। सोचा यहीं आमंत्रित कर स्वागत कर दूँगा परन्तु थोड़ा संकोच भी था। कुछ दिन पूर्व चुनाव में पराजय का दंस इन्हे झेलना पड़ा था। इससे बुलाने वाली बात मन में ही दफन हो गई परन्तु जाकर मिलना तो था ही। सुबह के स्नान -ध्यान की कड़ी में दाढ़ी बनाने का काम चल रहा था। साथ चलने के लिए सुरेंद्र जी की प्रतीक्षा भी हो रही थी। यह क्या ! लगता है उनको मालूम हो गया । उनका अचानक पदार्पण हो गया, अकेले । उनके साथ तो कोई नहीं थे, लेकिन पीछे से पाँच-सात लोग आ गए। स्वागत में उठकर मैं खड़ा हो गया - वैसे ही हाथ में छुरा ( उस्तरा ) लिए हुए । अभिवादन का अभिनय उस्तरे के साथ किया। बताते चलें कि उन दिनों मैं छुरे(उस्तरे) से ही दाढ़ी बनाता था। वे तुरत बोल उठे-
,"का मास्टर साहब, हमारा हजामत बना के अपने दाढी बना रहली हे ? अरे ई का ? ठीके हे ! हमरे घर में हमरे छुरा भी देखा रहली हे।"
सभी लोग हंसने लगे। मैं उसी तरह अर्ध-सेवित दाढ़ी लिए बात करता रहा।बार्ता और लम्बी चलती परन्तु स्कूल का समय हो चला था। इसे ध्यान में रखकर वे लौट गए और हमसे वहीं आकर मिलने का आश्वासन भी साथ ले गए। उस समय यह एक घटना थी परन्तु आज वही संस्मरण हो गया। इसे याद कर पुलकित होता हूँ।
एक वार पारिजात प्रकाशन में उनसे मिलने के उदेश्य से गया ।उनके पास बैठे एक व्यक्ति कुछ अपना संस्मरण सुना रहे थे ।उनकी बात तो आधी -अधूरी ही हमने सुनी परन्तु शंकर दयाल बाबू की बात खूब हँसाने वाली थी। एक बारात में वे गए थे ।बारात एक जमिंदार के यहाँ आई थी ।बारात पक्ष का नाई ही दोनो ओर का सम्पर्क सूत्र (संबदिया) होता था ।उस बारात पक्ष का नाई कन्या पक्ष के दरवाजे पर आया।दालान पर सबसे ऊँचे पलँग पर बैठे बुजुर्ग के साथ बैठ गया ।लोग उसकी ओर दौड़े तो जरूर लेकिन बुजुर्ग का पैर उसकी गोद में देख कर अवाक रह गए। बुजुर्ग भी खुश और नाई भी सर्वोच्चासन पाकर गौरवान्वित।यह है नापित ज्ञान।
इस कहानी पर मुझे भी नारायण चचा याद आ गए। मैं ने भी अपने गाँव का संस्मरण सुनाया । मेरा पैतृक घर जहानाबाद जिले का हाजीसराय गाँव है।
इसे बहुत मशहूर गाँव तो नहीं कहा जा सकता परन्तु वैदक विद्या के लिए अपने क्षेत्र का यह राजधानी माना जाता था । इस गांव में दो स्वतंत्रता सेनानी हुए।
इसी गांव में एक नारायण ठाकुर नाम के नापित रहा करते थे। अपने पैतृक कार्य में पारंगत।
मनचले किशोरों को इतना पढ़ाते कि उनसे बाल छंटवाले वाला दुबारा उधर ताकने की हिम्मत नहीं जुटा पाता। उस्तरा वही बाबा राज का पुराना और दाढ़ी बनाने की कला दंतकिच्चो से लेकर पितापुकार तक वाली। इसके अतिरिक्त उन्हें चिकित्साशास्त्र का भी अच्छा ज्ञान था। उनकी नरहनी बड़े बड़े ऑपरेशनों में समर्थ हो जाती थी। कांटा गढ़ने का घाव हो या अन्य प्रकार के व्याधी जन्य- आधी दबा तो वे अपनी नरहनी दिखाकर ही कर लेते थे ।इसके अतिरिक्त फोते (हाइड्रोसील) के ऑपरेशन में भी वे सिद्धस्त थे। ऑपरेशन का फिस था पाँच सेर चावल। उनकी ख्याति ऐसा विस्तार पा गई थी जिला -जेवार के लोग उनके पास इस चिकित्सकीय कार्य के लिए बराबर आया करते थे। कभी कभी तो भीड़ लग जाती थी।
हमारा पंचायत मुख्यालय काजीसराय में था। वहाँ बाबूजी के प्रयास और मुखिया जी श्री रघुनंदन सिंह जी के सहयोग से प्राथमिक चिकित्सा केंद्र खुला। उसमें एक डॉक्टर (एमबीबीएस) का पदस्थापन हुआ। एक महीने के अंदर इस केंद्र को एक छोटे हॉस्पिटल का रूप दे दिया गया । उस समय डॉक्टर सेवा भाव से काम करते थे। वे रोगी के आमद पर सेवा का अवसर पाकर खुश होते थे- आज के प्राइवेट चिकित्सकों की तरह। वहाँ के अन्य लोग भी बड़े अच्छे थे। सभी सेवा जीवी थे। डॉक्टर साहब के आने पर खूब प्रचार किया गया। बड़े बड़े बैनर लगाए गए-कपड़े पर बनवाकर। ढोला पीटा गया। डंके की चोट पर लोगों को आवाज दी गई- गांवों में। बाजार पर ग्रामोफोन से प्रचार किया गया। देहात में बाइस्कोप दिखाकर लोगों को आकर्षित किया गया। फिर भी रोगी की संख्या नहीं बढ़ी। डॉक्टर साहब को कारण पता चल गया था- नारायण ठाकुर। नारायण ठाकुर की घोषणा थी-
- कहीं दर्द हो तो नारायण तेल मलिए,कबज हो तो नारायण चूरन खाइए, घाव हो तो नारायण ठाकुर को बुलाइए और उसके बाद भी ठीक नहीं हो तो नारायण को याद कीजिए।
चिकित्सा केंद्र की श्मशान शांति पर ऊपर के अधिकारियों ने भी डॉक्टर साहब पर दबाव बनाया । सब ने मिल बैठकर विचार किया। रास्ता निकल गया ।
एक सम्मान समारोह का आयोजन हुआ।नारायण ठाकुर को मुख्य अतिथि बनाकर बुलाया गया। इन्हें आदर पूर्वक समझाया गया।
" नारायण बाबू ! आप तो अद्भुत प्रतिभा संपन्न अलौकिक पुरुष हैं। अभी तक कितने को आपने रोग मुक्त कर दिया है,कितने का दर्द हर लिया है। हम चिकित्सक लोग आपके इस ज्ञान के ऋणी हैं।यह ऋण तभी उतरेगा जब हम आपकी सहायता इस काम में करेंगे। इसलिए आपको हम लोग थोड़ा नस- नाड़ी की जानकारी देना चाहते हैं। इससे आप इस काम को और दृढ़ता के साथ सफल बना सकेंगे।"
नारायण ठाकुर ने इसे स्वीकार कर लिया। थोड़ी शिक्षा हो गयी। जानकारी हो जाने पर नारायण जी की नरहनी की गति बंद हो गई। पहले ऑपरेशन में हाथ थरथराने लगा। मसि कागज छुयो नहीं डॉक्टर नारायण पढ़ लिखकर अब नारायण ठाकुर हो गए।स्वास्थ्य केंद्र का सितारा चमक गया।
इन कलाओं के निष्णात नारायण ठाकुर जी संगीत प्रेमी थे। सारंगी इतना अच्छा बजाते थे कि क्या कहने! हम लोग उस समय बच्चे थे ।उन्हे घेरकर बैठ जाते। नारायण जी को इंगित कर कहते-
नरायण चा ! जरी बजाहू तो- सरंगी खैलें ?
बस नरायण चा शुरू हो जाते थे। बिलकुल स्पष्ट आवाज -
"तरंगी! खैलें?"
" नऽ"
" काहें?"
" कुछ नऽ हे खाय ला। बाबू से कह के मंगा लऽ'।
' जा बउआ जा, मिठाई ले आवऽ।"
पहले तो गांव में अच्छी बारातें अमराई( बगीचे )में ही ठहरती थी ।बड़ा सा सामिआना लगता था। थोड़ा ऊँचा आसन होता था बर बाबू एवं समधी जी का ।औरलोग दरी जाजिम पर बैठते थे। बस समझिए कि इसी तरह बारात एक बार गांव में आई हुई थी। बाईजी का नाच भी था। बाजे बज रहे थे, गीत चल रहा था। गीत का बोल तो याद नहीं है परंतु बार बार, बरजोरी बरजोरी शब्द सामियाने से छनकर बाहर आ रहा था। वहीं पर नारायण ठाकुर उसी आम्र्रकुंज में बारातियों की दाढ़ी बना रहे थे। अचानक चिल्लाहट हुई । लोग उधर ही दौड़ें जा रहे थे ।हमारी वाह तो थी नहीं ।समाचार की उत्सुक्ता बेचैन किए जा रही थी ।बहुत देर के बाद मालूम हुआ कि दाढ़ी बनाते समय उन्हें लगा कि वे नाच पार्टी में बादक के स्थान पर बैठे हैं और सारंगी बजा रहे है, बस ! घोंट दिया। गनीमत थी कि ठुड्डी ही कटी थी। गले पर रेता होता तो गरवा में गरबा मिला जा हो बालम वही पर हो जाता।
इन घटनाओं को याद कर आज भी बचपन का आनंद लेता हूँ और बचपने में जी लेता हूँ।
इसी तरह हमारे यहाँ एक थे बाबू जनार्दन सिंह । शरीर इतना भारी कि तीन तराजू मिलकर भी नहीं तौल सकता था। बाट तो तौलने के लिए बना ही नहीं था। गजगामी जनार्दन बाबू लाठी के सहारे चलते थे- धीरे धीरे। आवाज बड़ी कड़क थी- एक माइल तो सामान्य आवाज आराम से सुनाई पड़ जाती थी । चिकित्सकीय अनुभव इस तरह का कि हड्डी में किसी तरह की चोट हो ,टूट जाए, मुरक जाए, छूते ही ठीक कर देते थे- टूटी हुई हड्डी को बॅंस की कमाची से बांधकर , कोई प्लास्टर नहीं। प्लास्टर ऑफ पेरिस की आवश्यकता नहीं।वे हड्डी-नस- नाड़ी विशेषज्ञ थे ।
शंकर दयाल बाबू इसे बहुत ध्यान से सुनते रहे । बाद में इसे लिख कर देने को कहा था ।मैं ने उनसे लिखकर देने का वादा किया था कि अगर अभी नहीं दे सका तो जब आवश्कता होगी लिख कर दे दूँगा।वह अवसर आज आ गया है ।
इस तरह गॉंव का बचपन बड़ा आनंदमय था। किन्तु अब?
अब अलि रही गुलाब में अपत कटिली डार ! 
 लेखक सच्चिदा कुमार प्रेमी,  आनन्द विहार कुञ्ज,माड़न पुर, गया
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