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‌‌ डोली से अर्थी तक

 डोली से अर्थी तक

जीवन तो यह स्वयं ही पहेली ,
प्राण मिलने से प्राण जाने तक ।
देखो दिखो के सब प्रतिभागी ,
अपना हाथ पैर ये चलाने तक ।।
जीवन का तब आरंभ होता ,
जब अदृश्य से दृश्य हो जाते हैं ।
जीवन का तब अंत यह होता ,
जब प्राण त्यजते खो जाते हैं ।।
इसी बीच होती जीवन लीला ,
प्रकृति की ये शोभा बढ़ाते हैं ।
आकर कुछ करना हम सीखे ,
फिर कुछ करके दिखलाते हैं ।।
जीवन का आरंभ तब होता ,
जब धरा पर हम आ पाते हैं ।
धरा शृंगार हम भी कहलाते ,
जब धरा की शोभा बढ़ाते हैं ।।
जीवन मध्य के प्रथम चरण में ,
चरमोत्कर्ष हम तो इठलाते हैं ।
खुशियों की हद पार कर जाते ,
जब डोली चढ़कर हम जाते हैं ।।
जीवन में दो खुशियां हैं मिलती ,
जीवन मध्य व जीवन आरंभ में ।
शेष जीवन तो व्यर्थ ही होता ,
जीवन बीतता केवल ही दंभ में ।।
जीवन मध्य हम डोली चढ़ते ,
चार कहार ढोकर ले जाते हैं ।
जीवन अंत हम अर्थी पे चढ़ते ,
तब चार परिजन लेकर जाते हैं ।।
जीवन मध्य भी धरा से उठते ,
फिर धरा पर ही आ जाते हैं ।
जीवन अंत जब धरा से उठते ,
फिर वापस नहीं आ पाते हैं ।।
जन्मोत्सव विवाहोत्सव में तो ,
खूब मंगलगीत गाए जाते हैं ।
दुनिया से जब होते जुदा हम ,
तब दुनिया को हम रुलाते हैं ।।
पूर्णतः मौलिक एवं
अप्रकाशित रचना
अरुण दिव्यांश
डुमरी अड्डा
छपरा ( सारण )बिहार ।
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