एक दिव्य विश्वकोषीय व्यक्तित्व महर्षि व्यास
मार्कण्डेय शारदेयमहर्षि व्यास एक ऐसा नाम, जो ज्ञान के हर क्षेत्र में अपनी अद्वितीयता सिद्ध करता है।एक ऐसा व्यक्तित्व जो सर्वांगीण एवं सार्वकालिक मानवता को मूर्तिमान करता आया है।जो ज्ञान से तरल, सरस, सहज और जन-जन का पक्का हितैषी है। जो आध्यात्मिक पराकाष्ठा होकर भी साधारणीकरण का पक्षधर है।जिसने ज्ञान-विज्ञान की अलौकिकता को लौकिकता से जोड़कर विश्व-मानव का सर्वाधिक उपकार किया है।जिसने अर्जन-उपार्जन अर्थ के लिए य़ा यश के लिए नहीं, अपितु लोगों के व्यावहारिक ज्ञान के लिए एवं कल्याण के लिए किया है।जो आत्यन्तिक दुःख की निवृत्ति और आत्यन्तिक सुख की प्राप्ति का सहज सेतु तैयार करने में तत्पर रहा, ताकि लोग धर्मपूर्वक अधिक से अधिक धनार्जन करें तथा इहलौकिक समस्त सुखों का सही आनन्द ले सकें।समाज के हर तबके को सच्चा रास्ता दिखाकर शासन-तन्त्र को धनमद, शक्तिमद एवं अहम्मन्यता से दूर रखने का निर्देश किया।कर्म-सिद्धान्त को लेकर ऐसी-ऐसी कहानियाँ बुनीं कि आज के लोग भी स्वर्ग के लोभ और नरक के भय से अपने को कैसा बनाया जाए, इसके लिए सौ बार सोचते हैं।
व्यास को एक व्यक्ति के रूप में देखना अनुचित ही नहीं, घोर अपराध भी होगा।किसी व्यक्ति में इतनी व्यापकता कभी सम्भव ही नहीं है।वह ज्ञान के प्रत्येक क्षेत्र के दिव्य विश्वकोष हैं व ज्ञानावतार हैं।वह संस्कृतिपुरुष हैं।उनका अवदान समस्त मानवता की धरोहर है।उनका महाभारत के सन्दर्भ में कथन धर्मे अर्थे च कामे च मोक्षे च भरतर्षभ।यदिहास्ति तदन्यत्र यन्नेहास्ति न तत् क्वचित् ।।गर्व का नहीं, वास्तविकता का परीक्षणीय परिचायक है।इसीलिए तो वह विष्णु के अवतार कहे जाते हैं।इतना ही क्यों, वह बिना चार मुख के ब्रह्मा, बिना चार भुजाओं के विष्णु तथा बिना तीन नेत्रों के शिव कहे गए हैं।आशय यह कि व्यासजी त्रिदेवों के साक्षात् प्रतिनिधि हैं।
महर्षि पराशर और धीवर कन्या सत्यवती (मत्स्यगन्धा) के प्रेमसन्सर्ग से कृष्ण वर्ण एवं यमुना नदी के किसी द्वीप में जन्मधारण करने के कारण कृष्ण द्वैपायन, वेदों के सम्पादन के कारण ही व्यास या वेदव्यास कहलाए।इनका जन्म आषाढी पूर्णिमा को हुआ था, इसीलिए प्रत्येक वर्ष इस पूर्णिमा को व्यासजयन्ती मनाते हैं, जिसे गुरुपूर्णिमा भी कहते हैं। इन्होंने पहले वेद को चार भागों में बाँटकर ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद तथा अथर्ववेद नाम दिया।पुनः,ऋग्वेद की इक्कीस, यजुर्वेद की एक सौ नौ, सामवेद की हजार एवं अथर्ववेद की पचास शाखाएँ बनाईं।इसी विभाजन ने इन्हें व्यास नाम से विश्रुत कर दिया।इसीलिए कहा गया-
यो व्यस्य वेदांश्चतुरः तपसा भगवानृषिः।
लोके व्यासत्वमापेदे कार्ष्ण्यात् कृष्णत्वमेव च।।(महाभारतः01.105.14)
व्यास का कवित्व इतना सहज है कि सामान्य संस्कृतज्ञ भी आसानी से समझ लेता है, पर चिन्तन की गहराई ऐसी कि बड़े-बड़े ज्ञानी गोते लगाते रह जाते हैं।वह सदा सरलता-सहजता के पक्षपाती रहे।इसी कारण वेदों को विभक्त किया, विशिष्ट शिष्यों के माध्यम से पूर्वाचार्यों के ज्ञानरत्नों को प्रसार, विकास एवं अमरत्व दिया।केवल व्यास को हम निकाल कर देखें तो हमारा साहित्य घाटे में चला जाएगा।उन्होंने वेदों के रहस्यों को दुत्कारा नहीं और न उन्हें वृद्धवाक्य तक रखा।उन्होंने अपने पौराणिक साहित्य से उनका उपबृंहण किया।यानी, जैसे सन्तान अपने जन्मदाता का ही प्रतिरूप व विकास बन आती है वैसे ही वैदिक तथ्यों को नया कर लोकग्राह्य बनाया।आज भारतीय साहित्य पर दृष्टि डालें तो सर्वाधिक साहित्य व्यासीय निधियों पर ही आधारित हैं।
हाँ, व्यास तो पहले व्यक्तिवाचक ही था।परन्तु बाद में जातिवाचक हो गया।वह व्यक्ति जो ब्रह्मा से वसिष्ठ के रूप में, वसिष्ठ से शक्ति के रूप में तथा शक्ति से पराशर के रूप में चलता आया।विधाता के विधान को परम्परा से नवीनता लेता-देता ऋषियों की भावी पीढ़ी व ऋषिकर्मा आज के लोगों तक आत्मिक बना रहा।ऐसा व्यक्ति मात्र व्यक्ति ही कैसे रह सकता है।इनके कार्यकाल में भी अनेक लोग शिष्यत्व ले ध्वजवाहक रहे और आज भी कथा-प्रवचनों के माध्यम से कुछ हद तक इनके सन्देशों के व्याख्याता हैं।इस कारण व्यास संस्था ही है।पुनः, विष्णुपुराण(3.3) में जिन पूर्ववर्तियों को व्यास नाम से स्थापित किया गया है, वे अपने कृतित्व से भारतीय ज्ञानगरिमा के शिरोरत्न रहे हैं।वे सभी व्यास ही नहीं, व्यासत्व के निकष रहे।
आखिर व्यक्ति सीखता कहाँ से है, अपने पूर्वजों से ही न।मधुमक्खियाँ जगह-जगह से रससंग्रह कर ही तो मधु बनाती हैं।इसलिए ज्ञान का भण्डारण और सुव्यवस्थित वितरण करनेवाला ही व्यक्ति व्यास हो सकता है, जिसकी पूरी क्षमता पराशरपुत्र में दिखती है।आज के कथावाचक भले व्यासगद्दी सँभालें, पर अब के कवि खद्योत सम जहँ-तहँ करत प्रकास।फिर भी वह पवित्र कर्म तो कर ही रहे हैं।यदि बाह्याभ्यन्तर हो तो क्या कहना।
यों तो ब्रह्मसूत्र और महाभारत के अतिरिक्त 18 पुराणों के कर्ता भी यही कहलाते हैं।उपपुराणों से भी जोड़कर देखा जाता है, पर सबके प्रणेता न भी हों तो भी उनकी मूल निधियाँ इन्हीं की हैं।बीजरूप में यही हैं।जो व्याप्ति इनमें है, वह अन्यत्र कहाँ सम्भव है।समस्त परा-अपरा विद्याओं का एकमात्र केन्द्र यदि इनके साहित्य का अनुशीलन किया जाए तो कुछ बचा नहीं रहेगा।धन्य है भारत की भूमि, जिसने ऐसे महारत्न को जन्म दे विश्व में भारत का गौरव बढ़ाया और हमें इनका अनुवर्ती बनाया। (सांस्कृतिक तत्त्वबोध)
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