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गीत, ग़ज़ल ना रुबाई, मैं कहता हूँ,

गीत, ग़ज़ल ना रुबाई, मैं कहता हूँ,

जमाने की बात, जमाने को कहता हूँ।


आप झरने से झरते, किसी महल के,
मैं नदी की उन्मुक्त धार सा बहता हूँ।


नहीं करता खिलवाड़, शब्दों के साथ मैं,
पनघट पर पनिहारिन, गागर सा रहता हूँ।


छन्द-अलंकार के गहनों से सजी कविता नही मेरी,
अल्हड यौवना सा मस्त, अमीरों के तंज सहता हूँ।


संवेदनाओं के प्रति जागरूक, मगर खुदगर्ज नही हूँ,
मैं कवि हूँ, दर्द के भी दर्द का, दर्द कहता हूँ।

डॉ अ कीर्तिवर्धन
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