छूटती हुई पतवार को फिर थाम ले,
भंवर में कश्ती, हुनर से निकाल ले।वही नाविक श्रेष्ठ, वही तारणहार है,
डूबते को तिनके के सहारे, सहार ले।
आँसुओं का क्या, हरदम मचलते हैं,
सुख हो या दुख, आँख से ढलकते हैं।
ठहर जाते जब कभी पलकों के पीछे,
जज़्बात पत्थर हो गए, सब समझते हैं।
जख्म सबको रोज ही लगते यहाँ,
अपनों से कुछ गैरों से लगते यहाँ।
कोई कुरेदे जख्म को दवा के लिए,
बोल कुछ के नश्तर से लगते यहाँ।
सोचा था अपने आयेंगे, मरहम लगाने,
बात हमदर्दी की करेंगे, दिल को लुभाने।
दर्द की वजह अपने ही थे, गैरों ने बताया,
आँख से छलके आँसू, खुद को समझाने।
अ कीर्ति वर्द्धन
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