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कुंठाएँ

कुंठाएँ

कुंठाएँ जब जीवन में घर कर लेती हैं,
जीवन जीना वे मुश्किल कर देती हैं।
पास सभी कुछ अपने फिर भी सोच रहा,
ग़ैरों की ख़ुशियाँ विचलित कर देती हैं।


कोई सो रहा नींद चैन की फुटपाथों पर,
नहीं किसी को नींद मख़मल बिस्तर पर।
आधी रोटी खाकर भी संतुष्ट वह क्यों,
चिन्ता से ग्रसित कोई भोजन अवसर पर।


बहुत कमाया धन दौलत, पर काम न आया,
कुंठित मानव धन दौलत से, सुख न पाया।
धन की ख़ातिर ही नींद तजी, रोटी न खायी,
धन की रक्षा, तनाव बढ़ा आराम न पाया।


अ कीर्ति वर्द्धन

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