महाकवि पं उमेश चन्द्र मिश्र ;व्यक्ति और सृजन
डॉ रामकृष्ण मिश्रपंं कमलेशजी मिश्र की ख्याति सँस्कृत रचनाकारों में महत्वपूर्ण थी। उस काल में गया जनपद के ग्रामीण क्षेत्र में भी सँस्कृत विद्वानों तथा काव्य सर्जकों की समाज में उपस्थिति रेखांकनीय थी । कमलेशजी की कृति "कमलेश विलास" विद्वानों तथा संस्कृत रसज्ञों के बीच लब्ध प्रतिष्ट हो चुकी थी। शाकद्वीपीय ब्राह्मण परिवार में कमलेश जी एक गौरव थे।
कमलेशजी के अनुज थे पं वसुदेवमिश्र जिनके पुत्र का नाम था पं रामनारायण मिश्र।
पौष कृष्ण प्रतिपदा, रविवार विक्रम संवत१९७४ तदनुसार ई०१९१७ में उस विद्या संपन्न परिवार में निघमा नामक ग्राम में महाकवि का जातकावतरण हुआ। उन दिनों ब्राह्मण परिवार में सँस्कृत की शिक्षा अनिवार्य थी। इसलिए भी कि यह विद्या रोजगार की साधिका भी थी।
इनकी विद्यालयी शिक्षा के पश्चात् सँस्कृत साहित्य की शिक्षा अपने पिता श्री रामनारायण मिश्र जी से ही मिली थी। इस क्रम में बिहार के प्रख्यात् वैयाकरण पं देवदत्त मिश्रजी से व्याकरण तथा ओडो निवासी प्रसिद्ध नैयायिक और व्रजभूषण संस्कृत महाविद्यालय के प्राचार्य पं सिंहेश्वर मिश्र से तर्कशास्त्र एवं वेदान्त तत्व का अध्ययन किया।
यह सर्वथा सत्य है कि किसी रचनाकार में रचनात्मकता सहसा उद्भूत नहीं होती। उसका बीज जीवनके प्रथम चरण यानि बालपन से ही अंकुरित होने लगता है। इनके साथ भी यही लागू होता है। इनकी रुचि कविता के अतिरिक्त निबंध, आलोचना आदि विधाओं में भी थी। पारिवारिक परिवेश का प्रभाव इनकी संस्कृत की रचनाओं में प्रकट होती है।
देश में स्वतंत्रता आंदोलन से भी इनका साक्षात्कार प्रबुद्ध अवस्था में हुआ था। स्वाभाविक है कि कवि हृदय को समाज की समस्या इसकी विसंगति प्रभावित करेगी ही। यह सब इनकी रचनाओं में देखे जा सकते हैं।
एक बात और रचनाकार को भी योग- क्षेम की अनिवार्यता होती है। जीविका का साधन यदि उपलब्ध हो तो साहित्य रचने में आनंद ही आनंद है। इनके पाण्डित्य, स्वभाव की सरलता और मिलनसारिता आदि गुणों की परख कर बेला गंज के सुख्यात् उच्च विद्यालय में सँस्कृत अध्यापक के पद पर नियुक्त कर लिया गया। वहाँ इनका सम्मान छात्र शिक्षक एवं अभिभावकों के बीच आज भी स्मरणीय है। मुझे स्यरण है जब भी कोई सांस्कृतिक आयोजन का अवसर होता, इनकी सक्रियता बढ़ जाती।चाहे सरस्वती पूजा हो या तुलसी जयन्ती अथवा गाधीं जयंती अच्छा आयोजन होता जिसमें बाहर से भी लोग आमंत्रित होते थे। एक बार गया से अन्य विद्वानों के साथ मुझे भी जाने का सुअवसर मिला। उसमें पहले छात्रों की रचनाएँ सुनी गयीं तब हम लोगों की बारी आई। उसदिन लगा कि ये केवल रचनाकार ही नहीं अपितु अच्छे प्रेरक भी थे। आपने अनेक नवांकुरों को सँवारा है। डॉ राधानंद सिंह ने अपनी पुस्तक-गया का साहित्य;परंपरा प्रकृति और प्रयोग' में इनके बारे में लिखा है--
" पं उमेश चन्द्र मिश्र मगध की साहित्यिक-सांस्कृतिक परंपरा के एक अक्षय पुरुष का नाम है। पं मिश्र भारतीय आर्ष परंपरा के जीवंत स्वरूप थे,, जिन्होंने संस्कृत और हिन्दी में अपनी काव्य-रचनाओं से भारती के भंडार को समृद्ध किया। पं मिश्र की रचनाओं में पौराणिक भावधारा के चरित्र को एक नवीन आयाम मिला तथा युग और जीवन को उससे प्रेरणा का अमर संदेश प्राप्त हुआ। "
इनका सरल स्वभाव किसी को भी सहज ही आकृष्ट कर लेता था। यही कारण था कि ये सभी उम्र के रचनाकारों के श्रद्धेय और सहज प्रिय थे।
गया जिला हिन्दी साहित्य सम्मेलन हो या मगही प्रचारिणी सभा के कार्य क्रम, सहृदयता के साथ उपस्थित रहते थे। सालीनता के साथ पाण्डित्य इनके व्यक्तित्व में समाहित रहता ।
गया में फल्गु नदी के पूर्वी तट पर जनकपुर महल्ले में इन्होंने अपना निवास बना लिया था जहाँ अपनी बेटी दामाद तथा नाती के साथ रहते थे। चूकि संतान मात्र पुत्री ही थी जो किसी पुत्र से कम नहीं थी दामाद भी पुत्रवत इनके जीवन पर्यंत सेवा मे लगे रहे।
स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् यानि पाँचवीं छठी दशाब्दि में साहित्य की प्रवृत्ति और दिशामें परिवर्तन की छाया पसरने लगी थी। भारतीय संस्कृति की भाव क्षीणता नव आधुनिकता वाद के कारण बढ़ रही थी। ऐसे में मिश्र जी की रचनाओं में भारतीय मर्यादाओं का परिपाक प्रबुद्ध मानस केलिए संजीवनी बना।
संस्कृत की पृष्ठभूमि का रचनाकार अपनी रचनाओं में भारतीयता की सुगंध से कथ्य को सजाता है साथ ही तात्कालिक प्रभाव को भी ध्यान में रखता है।
इनकी रचनाएँ शालीन श्लिष्ट और तत्सम शब्दावलियों से परिपूर्ण हैं। भावों की गहनता के अनुरूप शब्द- गुंफन पाठक की पठनेच्छा तीव्र करता है।
इनकी संस्कृत की कविताएँ धारावाहिक रूप से संस्कृतम् नामक पत्रिका में छपती रही हैं तथा हिन्दी में साहित्यिक आलेख, आलोचनाएँ साहित्य संदेश, सरस्वती-संवाद, वासंती आदि पत्रिकाओं में छपती रही हैं।
इनकी प्रकाशित रचनाओं के अतिरिक्त अनेक अप्रकाशित रह गयी रचनाएँ-- स्वतंत्रता की वेदी पर( कहानी संग्रह)
ज्ञान तरंगिणी, अम्बाया:सङ्कल्प:( संस्कृत उपन्यास) जिनके प्रकाशन से इनका विशेष परिचय मिलता।
प्रकाशित रचनाएँ हैं:- आलोक विजयम्( संस्कृत खण्ड काव्य), संस्कृत अनुवाद ज्योत्स्ना,
व्याकरण तत्व बोथ( हिन्दी) ।
ऊर्ध्वरेता (हिन्दी महाकाव्य), चेतना के पंख ( काव्य संग्रह) ।
ंऊर्ध्वरेता के आवरण पृषठ तीन पर अंकित
१ सूर्यस्तव:( संस्कृत) २ अन्योक्ति पारिजात
३ विचार कल्पद्रुम४ सीकरिणी भी इनकी कृतियों हैं।
इनकी प्रकाशित कृतियो में ऊर्ध्वरेता की प्रसिद्धि अधिक हुई। हिन्दी जगत में ऊर्ध्वरेता पर आ० जानकीवल्लभ शास्त्री, वासुदेव शरण अग्रवाल, हरिवंश राय बच्चन जैसी हस्तियों ने टिप्पणी की है।
ऊर्ध्वरेता महाकाव्य का प्रकाशन १९५९ के जनवरी में हुआ था।
महाकाव्य की दृष्टि से महाकाव्यत्व के सारे लक्षण इसमें परिलक्षित होते है । इसमें ग्यारह सर्ग हें ।
कथावस्तु का आधार पृष्ठ महाभारत है। महाभारत के मुख्य पात्रों में पितामह भीष्म की भूमिका विवाद का कारण रही है।
किन्तु इस कवि के शान्तनु महाभारत के शान्तनु से भिन्न हैं। कवि इतिहासकार नहीं हो सकता और न इतिहासकार कवि। दोनों की अपनी अपनी सीमाएँ और लेखन शैलियाँ होती है। इतिहास में काव्य जैसी सरसता तो होती नहीं।
इस महाकाव्य में शान्तनु का सत्यवती के प्रति आकर्षण और प्रेम की विफलता, पिता के प्रति त्याग और प्रतिज्ञा की भीष्मता वरण, से लेकर वाणशय्या तक के आख्यान के सरस चित्रण के क्रम में राजधर्म, मानवीय चेतना के प्रति सजगता औदार्यता एवं नारी सम्मान आदि बिन्दुओं पर पैनी दृष्टि रखते हुए सहज पाण्डित्य पूर्ण सारस्यता की प्रस्तुति हुई है। भाषा का सौष्टव, प्रवाह और आलंकारिकता के क्या कहने ।कुछ पंक्तियाँ देखिए :-
प्रकृति चित्रण---
तारे थे छिप गये इन्दु जग से मुख मोड़ चला था/
"चक्रवाक निज भाग्य चक्र का बन्धन तोड़ चुका था/हृदय खोल कर चुके कमल थे स्वागत वासरमणि का / सूख चली थी ललित दूब के मृदु तुषार की कणिका। "
प्रात:काल के चित्रण में कितनी अच्छी व्यजना का उपयोग हुआ जिससे काव्य के कथ्य का संकेत मिलता है।
एक राजा का कर्तव्य राज धर्म का पालन है , भटकना नहीं--
"मिला क्षणिक विश्राम किन्तु उससे आराम नहीं है/ राज धर्म को भूल भटकना मेरा काम नहीं है। " ऐसा शान्तनु स्वयं स्वीकारते हैं।
इस काव्य के तीन खण्ड होने चाहिए या कहिए इस आख्यान से तीन काव्य सृजन होते ऐसा कवि भी मानते हैं ।
१ शान्तनु
२ गांगेय
३भीष्म पितामह/ ऊर्ध्वरेता
भविष्य में शायद कोई ऐसा कर सकें।
अम्बा ने अपने अपमान का कोप शिखंडी बन कर उतार लिया किंतु गांगेय की विवशता बनी ही रही। कवि ने नारीशक्ति की महत्ता को प्रतिष्ठित करते हुए कहते हैं
"सुप्त या खोया हुआ पौरुष पुन:
नारियों की प्रेरणा से जागता
दीर्घ जीवन के कँटीले पंंथ में
भय थके मन का अचानक जागता। "
वीरोचित कर्म की प्रेरणा का संदेश बडी़ सहजता के साथ प्रस्तुत हुआ है।
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"चेतना के पंख "इनकी चिंतन धारा का प्रतिनिधित्व करती कविताओं का संग्रह है। इसका प्रकाशन १९६६ में हुआ था। तब तक मिश्रजी ऊर्ध्वरेता के महाकवि के रूप में ख्यात् हो चुके थे। समय- समय पर चिंतन के क्रम में ं आए भावों के स्वरूप उभर कर उल्लिखित होते गये।
ऐसा नहीं कि लेखन की इति श्री हो गयी, भले प्रकाशित न हो सकी हो।
इनकी रचनाओं में मानवता, संस्कृति, राष्ट्र और राष्ट्र धर्म की छाया छवियाँ कल्पना की उडान के साथ मिल जाएँगी। डॉ रामकृष्ण/ संज्ञायन
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